श्रीमद्भागवत गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र | Shrimadbhagvat Geeta Rahasya Athwa Karmayog Shastra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40.28 MB
कुल पष्ठ :
952
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रस्तावना सनतो की उच्छिष्ट उक्ति है मेरी बानी । जानूं उसका भेद भला बया में अज्ञानी ॥। श्रीमद्भगवद्गीतापर अनेक सस्कृत भाष्य टीकाएँ अथवा देशी भाषाओमें अनुवाद या सर्वमान्य विस्तृत निरूपण है फिरभी यह प्रथ क्यों प्रकाशित किया गया यद्यपि इसका कारण ग्रथके आरभमेंही बतलाया गया है तथापि कुछ वाते ऐसी है कि जिनका ग्रथके प्रतिपाद्य विषयके विवेचनमें उल्लेख न हो सकता था अत्त उन बातोकों प्रकट करनेके लिये प्रस्तावनाको छोड और दूसरा स्थान नहीं है। इनमें सबसे पहली वात स्वय ग्रथकारके विषयमें है। कोई तैतालीस वर्ष हुए जब हमारा भगवट्गीतासे प्रथम परिचय हुआ था। सन् १८७२ ईसवीमें हमारे पूज्य पिताजी अतिम रोगसे आकान्त हो शय्यापर पड़े हुए थे उस समय उन्हें भाषा- विवृत्ति नामक भगवद्गीताकी मराठी टीका सुनानेका काम हमें मिला था । तव अर्थात् अपनी आयुके सोलहवे वर्षमें गीताका भावार्थ पूर्णतया समझमे न आ सकता था । फिरभी छोटी अवस्थामें मनपर जो सस्कार होते है वे दृढ़ हो जाते है इस कारण उस उमय भगवद्गीताके सबधमें जो चाह उत्पन्न हो गई थी वह स्थिर बनी रही और आगे जब सस्कृत और भअग्रेजीका अधिक अभ्यास हो गया तब हमने गीताके सस्कत भाष्य अन्यान्य टीकाएँ और अनेक पढ़ितोंके मराठी तथा अग्रेजीमें लिखें हुए विवेचनभी समय-समयपर पढे । परतु तब मनमें शका उत्पन्न हुई कि जो गीता अपने स्वजनोके साथ युद्ध करनेको बडा भारी कुकमें समझकर खिन्न होने- वाले अर्जुनकों युद्धमें प्रवुत्त करनेके लिये बतलाई गई है उस गीतामे ब्रह्मज्ञानसे या भक्तिसे मोक्ष-प्राप्तिकी विधिका - निरे मोक्ष-मार्गका - विवेचन क्यो किया गया है? यह शका इसलिये औरभी दृढ होती गई कि गीताकी किसीभी टीकामे इस विषयका योग्य उत्तर ढूँढे न मिला । कौन जानता है कि हमारे समानही और लोगोकोभी यही शका हुई न होगी परतु टीकाओपरही निर्भर रहनेसे टीका- कारोका दिया हुआ उत्तर समाधानकारक न भी जेंचे तोभी उसको छोड और दूसरा उत्तर सूझताही नहीं है। इसीलिये जब हमने गीताकी समस्त टीकाओ और भाष्योको लमेटकर एक ओर घर दिया और केवल गीताकेही स्वतत्न विचार- पूर्वक अनेक पारायण किये तब टीकाकारोके चगुल्से छूटे और यह बोध हुआ कि मूल गीता निवत्ति-प्रधान नहीं है वह तो कर्म-प्रधान है और अधिक क्या कहें गीतामें अकेला योग शब्दही क्मेयोग के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। महा- हा साधु तुकारासके एक अभगका भाव । ४
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