आप्त - परीक्षा | Aapt - Pariksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ ` आप्तपरीक्षा-स्वीपश्ञटीका मान लिया गया था और उन्हें भी स्वेज्ष माना जाता था। अतः ,डसे कहना पड़ कि ये त्रिमूर्ति तो वेद्मय हैँ अतः वे स्वेज्ञ भले ही हों किन्तु मनुष्य सर्वज्ञ केसे हो सकता है । उसे भय थां क्रि यदि पुरुषकी सवेज्ञता सिद्ध हुई ज्ञाती है तो वेदके प्रामास्य . की गंहरा धक्का पहुँचेगा तथा धर्ममें जो बेदका ही एकाधिकार या वेदके पोषक ब्राह्मण . का एकाधिकार चला आता है उसकी नींव ही हिल जावेगी | अतः कुमारिल कहता है कि भद ! हम तो मनुष्यके धर्मज्ञ होनेका निषेध करते ह । धमेको छोड़कर यदि मनुष्य शेष सबको भी जान ले तो कौन मना करता है ! | . । जेसे आचार्य सुमन्तभद्गके द्वारा स्थापित सवज्ञवाका खण्डन, करके, कुमारिलने, श्रपने पूर्वज शवरस्वामीका बदला चुकाया,.वेसे दी कमारिलका खण्डन करके अयने पूवज स्वामी समन्तमद्रका बदला भटाकलङ्कने शौर मयज्याजके स्वामी विद्यानन्दिने चुकाया । विद्यानन्दिने आप्तमीमांसाको लक्ष्यमें रखकर ही अपनी आप्तपरीक्षाकी रचना की। जहाँ तक हम जानते हैं देव या तीथंकरके लिये आप्न. शब्दका व्यवहार स्वार्सी समन्‍्तभद्रने ही प्रचलित किया है। जो एक न केवल सा्गेद्शेक किन्तु मोक्षमार्गद्शेकके लिये सवथा संगत है। | | आप्मीमांसा ओर आप्तपरीक्षा-- | . मीमांसा ओर परीन्तामे अन्तर है । आचाय हेमचन्द्रके* अनुसार मीमांसा शब्द आदरणीय विचार” का वाचक है जिसमें अन्य विचारोंके साथ सोपाय मोक्ष॒का भी विचार किया गया हो वह मीमांसा है और न्या[यपूर्वक परीक्षा करनेका नाम परीत्ता है । इष दष्टिसे तो आप्तमीमांसाको आप्तपरीत्ता कहना दी संगत दोगा, क्योकि आप्तमीमांसामें विभिन्न विचारतेकी परी्ताके द्वारा ज्ञेन श्माप्तप्रतिपादित হা, ह्वादन्यायकी ही प्रतिष्ठा की गई है, जबकि आप्तपरीत्तामें मोक्ञमार्गोपदेशकत्वको आधार बनाकर विभिन्‍न आप्तपुरुषोंकी तथा उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वॉँकी समीक्षा करके जैन आप्तमें ही उसकी प्रतिष्ठा की गई है। यद्यपि आप्तपरीक्षामें ईश्वर कपिलः बुद्धः नद्य आदि सभी पसुख आप्तोंकी.परीकज्षा की गई है, किन्तु उसका प्रमुख ओर आद्य भाग तो ईश्वरपरीक्षा है जिसमें इंश्वरके स्वृष्टिक्त त्रकी सभी दृष्टिकोशोंसे . विवेचना करके उसकी धाज़ियां उड़ा दी गई हें । कुल १२४ कारिकाओंमें से ७७ कारिका इस परीक्षाने घेर रक्खी हैं । ऐसा प्रतीव होता है कि ईश्वरके रृष्टिकत त्वके निराकरणके- लिये ही यह परीज्ञाग्रन्थ रचा गया है। और तत्कालीन परिस्थितिको देखते हुए यह्‌ उचित भी जान पड़ता है; क्योकि उस समय शङ्करके शरद्वेतवादने तो जन्म ही लिया था । बोंद्धोंके पेर उखड़ चुके थे । कपिल वेचारेको पूछता कौन था । ईश्वरफे रूपे विष्णु और शिवकी पूजाका जोर था। अतः विद्यानन्दिने उसकी ही खबर लेना उचित ससमा होगा । $. घर्मक्षत्वनिषेधस्तु फेवलो3श्नोपयुज्यते । सरवंसन्‍्यद्‌ विजानानः पुरुषः फेन घार्यते ॥ ' २. न्यायतः परीक्षण परीक्षा । पृजितविचारवचनश्च मीमांसाशव्दः। प्रमा० सीमा ० --पू० २|




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