उपवास - चिकित्सा | Upavas - Chikitsa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बालकांड २७ सिद्धान्त है । इपीलिए बुद्धिमान्‌ लोग ज्ञान की महिमा गाति हैँ ओर उसकी प्राप्ति की चिन्ता में सर्वदा लगे रहते हैं । विश्वामित्रजी ने ब्रह्मत की प्राप्न के लिए सहलो वपं तक कठिन तयश्वयां को; पर तो भी त्रह्मरेवजी ने उन्हें राजिः पदकी अपेत्षा अधिक सम्मानित नहीं किया। आखिर विश्वामित्र ने अह्य- . देव से पूछा, कि आप मुझे त्रह्मषि' क्‍यों नहीं कहते ? ््माजी . ने उत्तर दिया अभी तुम जिलेंद्रिय नहीं हुए हो! । अथौोत्‌ केबल वान-प्राप्ति से ही आदमी ब्राह्मग नहीं कहछाता, वरन्‌ ज्ञान के अजु पार आचरण भी छुद्ध होना आउश्यक है। विश्वामित्रजी को ब्रह्माजी के उक्त कथन की सत्यतां भी शीघ्र ही मालूम हो. गईं। त्रिशंकु नाम का ,एक राजा अयोध्या में राज्य करता-थाः । उसे अंपने देह-सहित स्वर्ग को जाने की इच्छा हुई और उसने जगुर वसिष्ठजी से अपनी इच्छा की पूर्ति करने के प्रीत्यथं यज्ञ करने की: प्राथना की । पर, यह असंभव जानकर वसिद्ठे ने त्रिं के कथन क्रा निषेध किया । राजा ने सोचा: “सम्भवतः वसिष्ठ के शत्रु विश्वामित्र मेरी इच्छा को ठृप्त कर सकेंगे” अतः उसने विश्वामित्रजी से अपनी इच्छा सुनाई । तब उन्होंने राजा की प्राथनों को मान कर - अपने तप के बल पर उसे सदेह संग को भेज दिया । पर, इन्द्र को यह पसंद न हुआ; अतः उन्होंने विशङ्क को स्वगं से नीचे ठकेल दिया । यह्‌ देख कर विश्वाभित्र ने “अपने तप के बल पर तिष्ठ तिष्ठ कह कर उसे . आकाश ही में पक दिया ! आज भी नीचे को सिर किया हुआ त्रिशंकु का ज्ञारा दक्षिण आकाश में चमकता हुआ दिखाई देता है! इस पकार जव चिश्वाभित्र ने) वसिएजी से डाह कर के, त्रिशंकु के




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