उपासकाध्ययन | Upaskadhayayan

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Upaskadhayayan by कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जअरुतावना ; भ्स्तुत उपासकाष्ययन सोमदेव सूरिङृत यशस्तिकवेः अन्तिम तीन आश्वास ह । स्वयं सोमदेवने হুল उपासकाघ्ययन नाम दिया ह ।१ यशस्तिरुकमे सोमदेव केवल यशोधर महाराजकी कथा न कहकर कुछ 'ओऔर' भी कहना चाहते थे । इस “और' को समझनेके लिए यशघ्तिकूककी समग्र कथावस्तु तया उसमे आये मानुषरगिक प्रसगोका परिचय आवश्यक ह 1 इसी दृष्टस प्रस्तावनाको दो भागोमें विभक्त किया ह । पर्वभागमे यशस्तिरुकको कथावस्तु, उपासकाष्ययन तथा आनुषभिक प्रसगोका विवेचन हैं और उत्तरभागमे उपासका- घ्ययनका तुलनात्मृक अध्ययन । पूर्व भाग [ १ ] यशस्तिकूककी कथावस्तु योधेय देशमें राजपुर नामका एक सुन्दर तगर था । उसपें चण्डमहासेनका पुत्र राजा मारदत्त राज्य करता था। वह्‌ नृग, नल, नहुष, भरत, भागीरथ ओर भगदत्त नामके प्राचीन राजाओसे भी पराक्रमशाली था । उसके अन्त पुरमें आन्ध्र, चोल, केरल, सिहल, कर्मार, सौराष्ट्र, कम्बोज, पत्लवं शौर कलिंग देशको सृन्दरियोका निवास या) एक दिन वीरभैरव नामके कूलाचार्यने उसदधे कहा, “राजन्‌, तुम्हारी राजघानीमे জী चण्डमारीदेनी- का मन्दिर ह, उसमे यदि देवीके सामने सन प्रकारके प्राणियोको वलि दौ जाये गौर समस्त क्षणोति युक्त मनुष्य-युगक्का वघ तुम स्वय अपने हायते करो तो तुम्हं विद्याधरोके लोकको विजय करनेवाली तरवारकौ सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं 1” यह सुनकर मारदत्त राजाने असमयमें ही महानवमीकी पूजाके वहानेसे समस्त जनताको मन्दिरमें बुलवाया और देवीके पादपीठके मिकट नेठकर अपने रक्षक अनुचरोको सब लक्षणोसे युक्त मनुष्य-युगल खोजकर छानेका आदेश दिया। चण्डमारीका मन्दिर बडा सयानक था, उसे देखकर स्वय मृत्यु भी मयभोत होती थी । उसका परि- सर प्र्यकालकी रातधरिकी तरह भयानक महायोगिनियोसे मरा हुआ था और मन्धभक्‍तोंका झुण्ड विविध प्रकारकी आत्मयन्त्रणाओमे संलग्न था। कही साधक अपने सिरोपर गुग्गुल जला रहे थे, कही अपनी शिरामों- को दीपककी तरह जलाते थे, कही रुद्रको प्रसन्न करनेके लिए अपना रुधिरपान करते थे, कही कापालिक अपने शरीरसे मास काटकर बेचते थे, कही अपनी अगतिं निकालकर मातृकामोकौ प्रसन्न करते भे লী कही अग्निमें अपने मासकी आहुति देते थे । इसी समय सुदत्त चामके जैनाचार्य मुनिसघके साथ राजपुर पघारे। नगरके वाहर एक सुन्दर उद्यान युवा पुरूष क्रोडामें मग्न ये 1 एेसे स्यानक्रो मुनियोके भावासके मयोग्य जानकर ' सुदत्ताचार्य आगे बढ गये । आगे इमशान भूमि थी । उससे दल एक पवन या। उसीपर वह ठहर गये मौर मध्यकालोन कृतिकर्मसे निवृत्त होकर उन्होंने साधुओको निकट्वर्ता ग्रामोम गोचरो करनेका आदेश दिया । उन साधुओपें दो मुनिकुमार भी थे। एकका नाम अभयरुचि था भौर टूसरेका नाम अभयमती । दोनो सहोदर माई-बहन' थे और यशोघर महाराजके पुत्र यगोमतीकी रानी তারা টি यमय ष उत्पन्न हुए थे । कुसुमावली राजा मारदत्तकी बहन थी। दोनोने कुमार अवस्थार्स ही तुल्दकर्क ऋत इ॒हय १, इयता अन्येन मया भोक्त चरितं सरोधरसरपस्य । इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपरितिसुपासकाध्ययन स ॥ था, वहाँ सुन्दरियोके साथ यश०, आदइच्रास पाँच ।




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