जैनहितैषी | Jainhitaishi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
692
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५९
भी बहुतसे भट्टारक नग्न होते हैं । इससे यों मुनि ही. माठम
होते हैं और हमेशासे ये अपनेको मुनि ही समझते आये हैं ।
ईडरके भंडारमें एक प्राचीन तथा जीण पुस्तक हैं, उसमें भट्टारक
दीक्षाकी विधि लिखी है। उसका थोड़ासा अंश जो हमारे
पास पं० नन्दनलाउजी अध्यापक ने क्ृपाकरके भेजा है, उससे
होता हैं कि, पहिले गृहस्थ या श्रावकको भट्ारककी दीक्षा
नहीं दी जाती थी किन्तु किसी योग्य मुनिको तलाश करके उसे
भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित करते थे । उसे सूरिमंत्र देते थे ओर उसमें
आचार्यके गुर्णोका आरोपण करते थे । इसके सिवाय उसमें भट्टार-
कके लिये घर्माचार्याघिपति, मुनि लव्घाचायंपद, जिनधर्मो द्धरण-
घीर, आदि विशेषण भी दिये हैं । इससे साफ माठूम होता हैं कि,
भट्टारक वास्तवमें गृहस्थ नहीं हैं, मुनि तथा आचार्य हैं । और कम
से कम उस पंथके ठोग जिसने भट्टारकोंको अपने धमेगुरुक रूपमें
स्वीकार किया है, प्रार॑भखे अबतक उन्हें मुनि वा आचाये ही मा-
नते आये हैं। नन्दिसिंघ, सेनसंघ आदिकी जो गुवांवली वा पड्टावली
है, उनमें भी पूर्व गुरुअंकी परम्परासे भट्टारकॉकी परम्परा मिठाई
गई है और उनका जो. नामकरण होता है, वह भी पूव गुरुओंके
समान होता है । जेसे गुणचन्द्र, रत्नकीर्ति, वीरसेन, सुरेन्द्रभूषण
आदि ।
भट्टारक दीक्षा विधानसे और भट्टारकोंकें इतिहासस इस बातका
आभास तो जरूर होता है कि, देश काछकी अनुकूठता नहीं हो
नेसे ही मुनियों वा आचार्योके स्थानमें भट्टारकोंकी स्थापना की गईं
थी और समाजके बहुत बड़े भागने इस सुधार वा. रिफार्मकों स्वीं-
कार कर ढिया था । परन्तु इस विषयका प्रतिपादन वा. विवेचन
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