निरंकुशता -निदर्शन | Nirankushata Nidarshan

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Nirankushata  Nidarshan by महावीरप्रसाद द्विवेदी - Mahaveerprasad Dvivediश्रीयुत मनसाराम - Shriyut Mansaram

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श्रीयुत मनसाराम - Shriyut Mansaram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धनेरंकुशता'-निद्शन ঙ শিক্ষা खुब्ने शब्दोंमें च्णंन कर स्तुतिन्गान करते है, तब कालिद[स-जैसे कविका कुमारसस्मवर्त 'शंदड्धार-रस-सस्बन्धिनी चेष्टाओंका वन! करना निरड्कुशता क्यो यदि “सौन्दय्ये-लदरी' शहर कृत न भी हो, तो एक भक्त कविकी रचना अवश्य है । श्रीहरष-कृत 'रशध्नावल्ली-नाटिका'का मद्अगत्ाचरण इस प्रकार ₹-- “पादाग्रस्थितया खुुःस्तनमरेणानीतया नस्रताम्‌, शम्भोः सस्पडलोचनत्रयपथं यान्त्या हदाराघने ) हीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोदगमोर्कस्पया › विश्शिष्यन कुसुमाब्जलिगि रिजया क्तिप्तोऽन्तरे पातु वः ।* क्या सङ्धल्लाचरण भौर उन्गसे नदीं हो सक्ता था? इसके -क्जिखे विना कविका क्या हरज था क्या वह निर्लजया निरङ्कुश शा, जो उनने शिव-पावंत्तीका इस प्रकार वर्णन किया † न्दी, यद सघ वह कुड्‌ नदीं था । वद स्वा कवि या । सामयिक रीतिन्नीतिका অহন करना सच्चे कविका धमै है । उस समयकी प्रचलित -प्रणाजीके श्रनुसार पेखा वंन छुरा नहीं समझा जाता था, _इसीसे संस्क्ृत-साहित्यमे ऐसे श्लोकोंच्ा अभाव नहीं है । द्विवेदीजी । कालिदासपर जो दोष आज आप लगाने केएठे हैं, 'वही दोष आप स्वयं चार-पाँच साल पद्ले कर चुके है। आपकी बुद्धि परिमाजित हे, भौर रुचि परिशोधित दे । फिर आपने यह पाप क्यो किया ? भापको शायद अपनी करतूत याद नदो, दस. किये बताये देता हूँ कि चार-पाँच वर्ष पदले आपने 'सरस्वती' में -सनोरक्षनके लिये निर्न-लिखित श्क्षोक छापा धा-- “कचङुचचिलुकाभे पाणिषु व्याष्तेधु प्रथमजलधिपुत्रीसङ्कमेऽनङ्गधास्ति ; भथिततिविडनीवीबन्धनिर्मो्तणाथै, ५ वतुरधिककराशः पातुवश्चक्रपाणिः | ई




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