कविता कलाप | Kavita Kalap

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविता-कलपं । जाणण्यास জল এ উস ২২ দহতুহাল | ( १) शिखा सूत्र के संगशस्त्र का मेल बिलोको ; निपट विप्र घर-बढ़े न जानो सरल द्विजो को । पूवे-काल मे वेद-मंत्र थे कड़खे रन के ; सेना-नायक, शूर, कुशल छविज, ऋषि, मुनि बन के ॥ (२) लख सरोप स्वाधीन भाव इस मसुख-मंडल का मिलता है सब पता पूव-पुरुषो के बल का । ध्वा तेज यो चह्य-तेज में यहाँ भरा है शॉत-चीर-रस-कटक संग मानो उतरा हे ॥ ३ भैंहि तनों, कटाक्ष गन म , निचय जो का हम सब को संवाद खुनाते है यह नीका-- गहो आप बल, बुद्धि, तेज, साहस, प्रभ्ुताई चल जीवन के लिए करो मत आइशश पराई ॥ (४) एर सहसा यह रूप देख होता है विस्मय-- आये-लोग क्या एक समय थे ऐसे नि्सेय ! क्या হুল सब जो आज बने है निर्बछ कामो रहते धे स्वाधीन खमरमे दोकर नामी ॥ (५) जो हो, यह सब परशुराम ने कर दिखाया । छत्रिय-दुल वा रक्त नदी सा शुद्ध बहाया | नदों पक दो बार, बार इक्कीस समर में सोय क्श्चिय-वीर करोडो काल-उदरमे॥ (६) अहंवगार उददड् निरंकुश प्वचिय-गन दत लगा न मुनि वी सला, सोच मे माथा ठनका | दिवश राध्य ने युद्ध रक्षयों से तब ठ ना भाला से मिड মৃত गया भाला निज बाना ॥ ( ७ ) विद्या-मय बल देख निरा बट पट मे लागा. समर-सेज परसोयटाय ! पिर दमी न जाया | तो भी मनि मे राज्य-लोस मे तञ्जी न वेदों . छार छार जय-भूमि सटज्ञ दिश्नो को दे दी ॥| १०. भा मय्‌, (८) लिये एक में शस्त्र, अन्य कर मे कुश-पानी, जीत-दान के लिए रहे तत्पर मुनि ज्ञानी । पृथ्वी कंपित हुईं नाम से परशुराम के ; सहमे सदा सभीत निवासी देव-धाम के ॥ (९ ) भली नहीं ই किसी कार मे विप्र-अवज्ञा ; द्विज सदु दो फट कुपित करं हे शाप-प्रतिक्ञा । जो रोते ये करीं सबल सव, तो पट-भर मे खाते खञ ससार खौच कर एकः नगर मे॥ ( १० ) हुआ समय का फेर हाय | परटी परिपाटो ; जो थे कभी सुमेर आज हे केवल मारी | क्षत्रिय-कुल निवेश सहज मे करनेहारे » परशुराम मुनि निरे राम बालक से हारे ॥ ९५- अहल्या । ( १९) काम-कामिनी सी छवि-रादमी; उपवन की छहल्हों छता-सी। गोतम-मुनि की यह नारी है, पति के प्राणों से प्यारी है ॥ (२) रहती है यह मुनि-संग बन में; ই, रु রদ क्त कक पम-गये कौ मानो मनम) पति को प्रवल प्रीति कः चन्दर पग; कानन रस नगरः र ( २ ) सनि की दिद्य देश क ट्र नहा चारन ग्य পাশা | বরন > गन्दरग ह श्य ~ न রি আছি ज हि টি छ শি > क न्न्य ऋः सर हा পর ৩৩ म পু উঃ এ कक रन न ण्य म्न হু :




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