विश्व इतिहास की झलक | Vishwa Itihas ki Jhalak
श्रेणी : इतिहास / History, विश्व / World
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28.53 MB
कुल पष्ठ :
766
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समाजवाद का आगमन ७६३
उद्योगों का या कम-से-कम जमीन और बडे-वडे उद्योगों का, यानी उत्पत्ति के
ख़ास-ख्ास ज़रियों का, मालिक वन जाय और वही उन्हें चलावे तो मजदूरों के यों चूसे
जाने का ख़तरा न रहे। इस तरह, एक धुँधली ददल में हो सही, लोग पूंजीवादी
व्यवस्था के मुक़ाबिले का दूसरा कोई उपाय छूँढने लगे । मगर पूंजीवादी व्यवस्था घर
वैठना नहीं चाहती थी । उसका ज़ोर तो बढ़ता चला जारहा था ।
इन समाजवादी घिचारों के चलानेवाले शिक्षित और दिमागी लोग थे और
कारखानेदारों में से रॉबर्ट भोवेन था । मजटूर-तंघों का आन्दोलन कुछ समय के
लिए दूसरी दिद्ला में चला गया और सिर्फ़ ज्यादा मज़टूुरी और पहले से अच्छी हालत
के लिए कोशिश करने लगा । सगर उसपर इन घिचारों का आम तौर पर असर
पड़ा और उसका खुद का असर समाजवाद के विकास पर भी खूब हुआ । योरप के
बड़ें-वडे उद्योगवादी देश इंग्लण्ड, फ्रांस और जर्मनी थे । इन तीनों में अपने-अपने यहाँ
के मज्धदूरवर्म के चल भीर स्वभाव के मुताबिक संमाजवाद का विकास ज्षरा अलग-
अलग तरह से हुआ । सारी वातों को देखते हुए अंग्रेतों का समाजवाद अनुदार
था । उसका चिदवास धीरे-घीरे उन्नति के तरीक़ों पर था और दूसरे यूरोपियन
देवों का समाजवाद उम्र और क्रान्तिकारी था । अमेरिका की हालत विलकुल
जुदा थी, क्योंकि वह बड़ा लम्बा-चौडद़ा देश ठहरा और वहाँ मजदूरों की साँग
भी बहुत थी । इमीलिए बहुत अर्से तक चहाँ कोई ज़ोरदार मजदूर-आन्दोलत नहीं
पनप सका ।
उन्नोसवीं सदी के वीच से लगाकर आगे एक पीढ़ी तक ब्रिटिश उद्योग संसार
पर हावी रहा भौर दौलत को नदी उसीकी तरफ़ बहती रही । कारखानों का मुनाफ़ा
और ह्विन्दुस्तान और दूसरे गुलाम मुत्कों-से चूसा हुआ रुपया चरावर उसकी जेब में
आता रहा । इस घन का एक हिस्सा मजदूरों के पास भी पहुंच गया और उनके
रहन-सहन का दर्जा इतना ऊँचा हो गया. जितना पहले कभी नहीं हुआ था । खुद्दा-
हाली और क्रान्ति का कया साथ ? ब्रिटिश मजदूरों की पुरानी क्रान्ति को भावना
काफ़ूर होगई । ब्रिटिश छांप का समाजवाद सबसे नरम होगया । इसका नाम फंबि-
यनवाद पड़ गया । इस नाम का एक रोमन सेनापति था । चह दुडमन से सीधी लड़ाई
न लड्कर उसे घीरे-घीरे थका मारता था । १८६७ ई० में इंग्लैण्ड में राय देने का हक़
और भी यढ़ा दिया गया और थोडे-से शहरी मज़द्धरों को भी राय देने का हक़ मिल
गया । मज़दूर-संघ इतने सयाने और खुशहाल होगये थे कि मज्दुरदल का मत ब्रिटिया
उदारदल को मिलने लगा था । इस समय के चारे में लिखते हुए काले माकसे कहता
हैः--“अंप्रेजी मजदूर, का नेता होना इज्जत की वात, नहीं हैं; उसका नेता न होना
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