भारतीय समाज के ऐतिहासिक विश्लेषण | Bharatiya Samaj Ke Etihasik Vishleshan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
336
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)আশি डी अत
कहा जा चुका है, अपनी अनिवाय और पश्चात् कृत्रिम आवश्य-
कताओं की पूर्ति के प्रयास में करता है। फिर यह विज्ञान का
विपय हो जाता है. कि वह इस कारण की व्याख्या करे कि इन
आवश्यकताओं की पूर्ति के विविध तरीके किस प्रकार मनुष्य के
पारस्परिक सामाजिक आचारों को प्रभावित करते हैं। मानवीय
आवश्यकताओं में भूख को अभिद॒ष्ति प्रमुख है ओर आहार की
खोज उसका प्रमुख प्रयात है। आहार को खोजता-खोजता बह
उसको उत्पन्न भी करने लगता है। आहारोत्पादव के साधन कुछ
तो बह स्वयं ढूँढ़ निकालता है, कुछ प्रकृति उसे प्रदान करती है ।
परन्तु प्रकृति इसके साथ साथ ही उन आवश्यकताओं का उन्हीं
साधनों से नियन्त्रण भी करती हु, जिनसे एकांश में मनुष्य उस
पर अपनी विजय स्थापित करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि
अआवश्यकताएं उत्पादक शक्तियों द्वारा निश्चित और नियंत्रित
होती हैं । जब जब इन शक्तियों में गुरु परिवतेन होते दै तव तच
मनुष्य की सामाजिक स्थिति, रूप और संगठन में मी तत्परिणाम
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मे परिवतेन होते है । प्रायः सारे आदशेवादी, ( आत्मवादी,
हेतुक), ““आदडियलिस्द” ) आर्थिक विकारों ( संबंध-रूप-विशेप-
ताओं ) की मानव स्वभाव-जन्य सानते हैं, इन्द्वात्मक भौतिक
वादी उन्दः सामाजिक उत्पादक शक्तियों की देन मानते हैं।
प्राकृतिक परिस्थितियाँ एक असंस्कृत समाज अथवा सामाजिक
संबंध उपस्थित करती हैं ओर यह सामाजिक पारस्पय उन कृत्रिम
पंरिस्थितियों को जन्म देती है, जिनसे समाज मे उत्तरोत्तर परि-
वत्तन होते हैं और जो प्राकृतिक परिस्थितियों से किसी प्रकार
गोण नदी होतीं । এ |
यद् आवश्यकताओं के पूत्येथ मानव-अ्रयासरों से. प्रादुभू त
समाज “भ्रामितिहास”-कालीन मानव समाज है। ऐतिहासिक
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