अहिंसा विवेक | Ahinsaa Vivek

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Ahinsaa Vivek by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रहिसा-पर्यवेक्षण ३ अब तक के समाज मे अहिंसा घर्म का उपचरित उदय नही था, पर वाणिज्य आदि कर्मो के साथ-साथ उसके उदय की अपेक्षा समाज मे अवश्य हो चली थी । राजा ऋपषभ ने कर्म-प्र वर्तंत के श्रनन्तर ही धर्म-प्रवर्तत का वीडा उठाया और वे राज्य, स्‍त्री, पुत्र, स्वर्ण, रजत आदि को छोडकर इस श्रमण सस्क्ृति के प्रथम श्रमण बने । सुदीर्घध तप साधना से कंवल्य प्राप्त कर तीर्थंकर वने और अहिंसा धर्म का प्रवर्तन किया । उसके वाद काल-प्रवाह के साथ-साथ मनुष्य की भोगैषणा समय-समय पर बढती रही व अहिंसा धर्म का श्रपवर्तन होता रहा शोर एक के वाद एक होने वाले तीर्थंकर उसे उद्‌वतंन देते रहे। यह है अहिसा के निमेष और उन्मेष की जैनी गाथा 1 वैदिक संस्कृति न्नर श्रमण संस्कृति जैन-धारणा के अनुसार बेंदिक सस्क्ृति भी श्रमण सस्क्ृति से बहुत दूर की वस्तु नही रही है । चछपमनाथ स्वामी के युग मे ही भरत चक्रवर्ती ने उनकी वाणी का चार वेदो के रूप मे सकलन किया और उसने ही ज्ञान, दर्गन और चारित्र के प्रतीकं यज्ञोपवीत का प्रवर्तन किया ।* वे वेद बहुत वर्षो तक श्रमण सस्कृृति के १ ज्ञानदरशनचारित्रलिद्ख रेखात्रयं नृप । वककष्यमिव काक्किण्या, विदधे शुद्धिलक्षणम्‌ ॥ अद्धंवर्षे<दंवर्ष च, परीक्षा चक्तिरे नवाः। श्रावका: काकिणीरत्नेनाउप्लम्बयन्त तथंचर हि ॥ तललादना भोजन ते, लेभिरेऽथाऽपठन्निदम्‌ । जितो भवानित्याद्य.च्चं माहिनास्ते ततोऽभवन्‌ ॥ निज(न्यपत्यरूपाणि, साधुभ्यो ददिरे च ते। तन्मघ्यात्‌ स्वेच्छया कंटिचद्‌, विरक्तंत्रंतमाददे | परीषहासहै कंड्चिच्छावकत्वमुपाददे । तथव बुभुजे तंच, काकिणीरत्नलाचधितेः ॥ भूभुजा दत्तभित्येभ्यो, लोकोऽपि श्चद्धया ददौ । पूजिते - पूजितो यस्मात्‌, केन केन न पुज्यते ? ्हुस्स्तुतिमुनिश्र षडसपमाचारोपवित्रितान्‌ 1 श्रर्यान्‌ वेदान्‌ व्यधाच्चक्री, तेवां स्वाघ्यायहेतवे ॥! क्रमेण माहनास्ते तु, ब्राह्यणा इति चिश्वुताः। काकिणीरत्नलेखास्तु, प्रापुर्य॑त्नोपवीतताप्‌ --त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्‌ पव्वे १ सर्म ६ इलोक २४४९१ से २४८




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