पथचिह्न | path Chinh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्खूति-चिन्तन- अज भवादूज हं । अगज में बिना बहिन का भाई हैं । मता-पिक््- विहोन नि:सम्बल शेशव जितके स्नेहकोड़ में हंसा-लेला, जिसने सन्‍्हें-ले कुडमल को अपनी आत्मा के अमृत से सींच-तोंच कर पललबित किया, जितने अपनी सावताओं का संतार आसीस की तरह भाई के चारों ओर परिवेष्टित कर दिया, आज वह बहिन नहीं हे । मेरी वह बालविधवा बजिन-त्रह मतिमती तपस्प्रा, वह साक्षात्‌ पवित्रता, वह जीवित करुणा, वह मेरी रामायण, वह मेरी गीता, वह मेरी गंगाजली ! आज हूँ सर्वेधा एकाकी, आज हूं उजाड़खण्ड का एक बिरवा ! बहिन, जनम-जनम से ऐसी ही तो तुम्र थीं, आज से तुम्हें अपने में पाता हैं, आह ! कितने आँसुओं को वात्सल्यथ बना कर तुसने अपना सूनापन भरा था। बहिन, तुम कल्पवती थीं, तुम युग-युग अजर-अमर हो, आज तुम्हारी करुणा अदेह होकर भो इस पृथ्वी के दुःखद्दन्य में सदेह है । पृथ्वीके कोटि-कोटि दरिद्ववारायणों में में तुम्हें प्रणाम करता हूं । तुम उन्हों के बीच सुजलाम्‌ सुफलाम्‌ शस्पतक्यामछास होकर उगो, सलयजशीतलाम्‌ हीकर उनके सन्तप्त हृदय का परस करो: “जीवन ब्रात-समीरण-मा लघु विचरण-नि रत करो। तरु-तोरण-तृण-तृण की कविता छवि-मधु-सुरभि भरो 4 काशी, १९३९ ।




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