पथचिह्न | path Chinh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
127
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्खूति-चिन्तन-
अज भवादूज हं । अगज में बिना बहिन का भाई हैं । मता-पिक््-
विहोन नि:सम्बल शेशव जितके स्नेहकोड़ में हंसा-लेला, जिसने सन््हें-ले
कुडमल को अपनी आत्मा के अमृत से सींच-तोंच कर पललबित किया,
जितने अपनी सावताओं का संतार आसीस की तरह भाई के चारों ओर
परिवेष्टित कर दिया, आज वह बहिन नहीं हे । मेरी वह बालविधवा
बजिन-त्रह मतिमती तपस्प्रा, वह साक्षात् पवित्रता, वह जीवित करुणा,
वह मेरी रामायण, वह मेरी गीता, वह मेरी गंगाजली !
आज हूँ सर्वेधा एकाकी, आज हूं उजाड़खण्ड का एक बिरवा !
बहिन, जनम-जनम से ऐसी ही तो तुम्र थीं, आज से तुम्हें अपने में पाता
हैं, आह ! कितने आँसुओं को वात्सल्यथ बना कर तुसने अपना सूनापन
भरा था।
बहिन, तुम कल्पवती थीं, तुम युग-युग अजर-अमर हो, आज तुम्हारी
करुणा अदेह होकर भो इस पृथ्वी के दुःखद्दन्य में सदेह है । पृथ्वीके
कोटि-कोटि दरिद्ववारायणों में में तुम्हें प्रणाम करता हूं । तुम उन्हों के
बीच सुजलाम् सुफलाम् शस्पतक्यामछास होकर उगो, सलयजशीतलाम्
हीकर उनके सन्तप्त हृदय का परस करो:
“जीवन ब्रात-समीरण-मा लघु
विचरण-नि रत करो।
तरु-तोरण-तृण-तृण की कविता
छवि-मधु-सुरभि भरो 4
काशी,
१९३९ ।
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