जैनतत्त्वमीमांसा | Jaintattvmimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २३ ) स्वयं पढ़ रहा है या दोपक पढ़ा रहा है? दीपक पढ़ा सहेस्है. यह.तो कहा नहीं जो सकता, क्‍योंकि ऐसा मानने पर दीपकके रहने तक उसका पढ़ता नहीं रुकना चाहिए ! किन्तु हम देखते हँ कि दीपकके सद्धयवमे भी कभी वह पढ़ता है और कभी अच्य कार्य भी करते लगता है। इससे मालूम पड़ता हैँ कि दीपक तो निमित्तमात्र है, वस्तुतः वह स्वयं पढ़ता हैं, दोपक লা उसे पढ़ाता_नहीं । इस प्रकार जो नियम्म॒ दीपकके लिए है वही नियम सव निभित्तोके लिए जान लेना चाहिए 1 निमित्त चाहे क्रियावान्‌ द्रव्य हो और चाहे निष्क्रिय द्रव्य हो, कार्य होगा अपने उपादानके -अनसार ही । श्रतः निमित्तका विकल्प छोड़कर प्रत्येक संसारी जीवको अ्रण्ने उपादानकी ही सम्हाल करनो चाहिए । जो संसारो जीव श्रपने उपादानकी सम्हाल करता है वह अपने मोक्षरूप इष्ट प्रयोजनकी सिद्धिमें सफल होता हैं और जी संसारी जीव उपादानकी उपेक्षा कर अपने अज्ञानके कारण निमित्तोंके मिलानेके विकल्प करता रहता हैं वह अनजानी हुत्ना চারা संसारका पात्र बना रहता है । कार्योत्पत्तिमें निमित्तोंका स्थान हैं इसका निषेध नहीं और इसलिए वाह्म दृष्टिसि विवेचन करते समय शास्त्रोंमें निमित्तोंके अनुसार कार्य होता हैं यह भी कहा गया हैँ। परन्तु यह सव कथन उपचरित ही जानना चाहिए 4 व्यवहारनय पराश्चित होनेसे एसे ही कथनको स्वीकार करता है, इसलिए मोच्तमागमे उसे गौर कर स्व्राधीन सुखके कारणभूत निश्चय- नयका श्राश्रय लेनेका उपदेश दिया गया हैं। संसार अवस्थामें निश्चयके साथ जहां जो व्यदहार होता ह, होश्रो ! पर इस जीवको यदि एसी श्रद्धा हो जाय कि जहाँ जो व्यवहार होता है वह पराश्रित होनेसे हेय हैं और निश्चय स्वाश्नित होनेसे उपादेय है तो ऐसे व्यवहारसे उसका विगाड नहीं । विगाड तो व्यवहारको उपादेय मानकर उससे मोक्षकार्यकी सिद्धि माननेमे हँ । अतः मोक्षेच्छुक प्रत्येक प्राणीको यही श्रद्धा करनी चाहिए कि मोक्षकार्यकी सिद्धि मात्र निश्चयका आश्रय लेनेंसे ही होगी ৮7722 ুযজুিচটি ভাত पाता एक्स ~ दीपन युत तत्न शन्त्द्‌ लद ज स जती पक नत षा भटः ধা 7777০ এ %/) রি




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