देवपूजा प्रवचन | Devpooja Pravachan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)देवपूजा प्रवचन ११
जो पाठ प्रचलित है वही मुख्यत बोलना चाहिये । णमों अरहताणको णम्मों अरिह्ताण भी
बोलना उपयुक्त है और मुख्यतासे ऐसा ही बोलना चाहिये । णामोकार मन्रके १८४३२
प्रकार इस तरह है कि श॒मो अश्ररिहृताण ११५ लहसे बोला जाता है, सिद्धाण ४ तरहसे
णमो श्रादरिवाण २४ तरहसे, णमो उवज्कायाण ४ तरहसे और णमो लोए सन्वसाहुण
४ तरहसे । इस प्रकार १२, ४, २४, ४, ४= १८४३२ प्रकारहौो जातेदहै। ये सवस्प
प्राकृत व्याकरणक सूप्रोसे निष्पन्न होते है । इसका पृथक् विवेचनं एक पुस्तिकामे किया है
उसे देखिये | इस णमोकार मत्रमे ५ पदोके ३५ अक्षर है और आर्यागाथा होनेसे ५७ मात्रा
है। इस मत्रसे सब मंत्र तत्र निकले है और इससे (इसकी आराधनासे) अनेक ऋद्धियाँ
प्रकट होती है । णमोक्रार मत्रमे जिन्हे श्रद्धा ह वे उसके प्रताप श्रौर प्रभावे श्रनेक लौकिकः
ग्रौर पारलौकिक सिद्धियां प्राप्त कर लेते है । पाँच परमेष्टियोके स्वरूपमे जो तन्मयहौ जाते
है उन्हें तो आत्मरूप परमात्मपदकी प्राप्ति होती ही है, लेकित जो ऐसे तदरूप नही हो पाते
या क्षणिक स्थिर रह सकते है वे भी अलौकिक विभूतिको पाकर परपरा मोक्षके ्रधिकारी
होते है। इसके अ्रतिरिक्त जो इममे नाम रूपसे ही दृढ श्रद्धाव रखते है उनके भी अनेक
लौकिक कार्य सिद्ध होते है, विपदाएं दूर होती है होना चाहिये श्रद्धापूवंक 1 श्रत इसकी
उपासना बडी श्रद्धा और हृढतापूर्वक करता चाहिये। इसकी भाव उपासना करनेवालोका
ही जन्म सफल है । इसकी भ्राराधना करनेमे ही सच्चा पुस्षा्थं है, वही एक बडी करतूत
है । सारका विकारी पर्यायोको लिये कुछ भी करना पुरुषार्थ नही है। व्यक्ति दो ही काम
कर सकता है विकल्प और निविकल्प रूप आत्मा परिणाम, तो विकलपोको बढाना तो ससार
का कारण है और उन्हे घटाकर निविकल्प स्थितिमे आता मोक्षका कारण है। इसके श्रागे
आराबक अतादियूलमत्रेभ्यो नम पदका पुप्पाजलि क्षेप करता है | उक्त ললঙ্কা स्तोक
रूप थ्रो नम है, श्रर्थात् पाँच परमेष्ठियोको नमस्कार हो । यह मत्र विस्तारका सक्षेप रूपमे
अनादि अनिधन है, और श्रन्य मत्रोका मूलमत्र है । श्रत उक्त पद बोलकर पृष्पकी अजुलि
क्षेपण करते है। इसके आगे चत्तारि दडक पढते है ।
चार मंगल--चत्तारिमगल-- श्ररिद्वता मगल, सिद्धागमगल, साहुमगल, केवलिष-
ण्णात्तो धम्मो मगलं । म-भर्थात् पापको जो गालयति श्रर्थात् गाले, नष्ट करे उसे मगल
कहते है श्रथवा पथ सुखको कहते है उसे जो लवे उसे मगल कहते है । चत्तारिका श्र्थ-
चत्ता प्राकृत शव्दक्रा श्रथ होता है छोडना গ্পীত হি লাল হান্ত | জন অন্থীঘহ সপ উক্সা कि
जो छोड चुके हैं कर्म शच्ुओकों जो ऐसे श्ररह्त सिद्ध परमेष्ठी जो कर्म शत्रुओको छोड रहे है
ऐसे आचार्य उपाध्याय सहित साधु परमेष्ठी और कर्म शन्नु जिससे छूटते है ऐसा केवली
प्रीत धर्म है। धर्म 'पदमे एक वचन होनेसे धमकों एव्रूपता प्रगट होती है, अर्थात् धर्म
User Reviews
No Reviews | Add Yours...