आत्मपरिचयन | Aatmparichayan

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Aatmparichayan by खेमचन्द जैन - Khemchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्यपरिचया ११ ग्रपने स्वरूपमे अपने उत्पादव्ययसे अपनेको परिणमाते रहते है, अपने ही परिणामस अपने लिये उत्पाद करते है और अपनेमे अपने लिए अपने श्राप अपनी पूर्वपर्यायका व्यय करते है । प्रत्येक पदार्थ अपनेमे अपने लिए अपन ग्राप वित्रश्चित व विलीन होते है, फिर भी वे प्रत्येक पदाथ अपने श्राप अपने लिए अपनेसे अपना सत््व बनाए रहते है, यही पदार्थका स्व- रूप है। हे आत्मन्‌ ! हम सब भी एक पदार्य है, अपने झाप बनते हे । इन पदार्थोका अन्य किसी पदार्थसि रच भी सम्बंध नही है । सम्बध नही है तब श्रद्धामे पूरे तौरसे सबसे न्यारा ग्रपनेको समझो । सत्य श्रद्धा नही पकडी तो समारमे रुलना पडेगा । हे आात्मन्‌ ! तू पवित्र है, अपनी प्रभ्ुुताको देख । इस ही प्रभ्ुके प्रभुत्वकी भक्तिसे तू पाप काठेगा तो सुख पायेगा, यही मगल है, यही उत्तम है, यही शरण है, यही रक्षक है, यही महान्‌ कला । यह है अपने आप और स्वय ही ज्ञानानन्दमयं श्रपने भ्रापको ससारके सर्वक्लेशोसे मूक्तं करनेका उपाय । जीवका शरीरसे घत्रिष्ट सम्बंध है और शरीरमे जब-जब रोग होते है तब तब इस जीवको दुःखी भी होता पह्ता है। पर इस रोगका मूल कारण क्‍या है और इस रोगके मिटने का मूल उपाय क्‍या है ? इस बातपे मोही जीवको दृष्टि नही जाती । यह शरीर मिला है तो जैसे-जैसे गति नामकर्मका उदय हुआ, शरीर नामकर्म सघात आदि नामकर्मका उदय हुझ्ना, उस उसके अनुसार जीवको शरीर मिला करता है और वह नामकर्म कैसे मिलता है ? जैसे-ज॑से जीवके परिणाम होते है वसे-वैसें कर्मोकिे बचन होते है, शरीरमे रोग होते है, व्याधियों होती है, मृत्युहोती है, शरोर मडना-गलता दै, खोटा णरीर मिलता ই | इन सबका शरण श्रात्मा का परिणाम है । इन सब विपदावोका मूल कारण क्‍या है ? इसके श्रतरमे कारण खोजो লী खोटा ग्त्मपरिणाम उनका कारण मिलेगा । जो-जो कुछ इस आत्मापर गुजरता है, धनी होना, निर्धन होना, यश, अपय्रश, रोग, निरोगता, जो-जो गुजरते है इन सबका कारण आत्मा का परिणाम है । जैपा परिणाम किया वैसा कर्मबन्धन हुआ । जैसा कर्मबन्धन तैसी सामने स्थिति श्रा गई । इस शरीरमे विपदाएँ, विपत्तियाँ कैसे मिटें, इसका कारण सोचेंगे वह भी प्रात्माका परिणाम है श्र्थात्‌ जौ उपयोग निज आत्माके सहज बुद्ध चेतन्यतत््वकों पहचानता है, वहाँ ही रमता है, उसको ही आत्मा अगीकार करता है । वह परिणाम तो सर्वक्लेशो, व्या- वियोके नश करनेके लिये सब परिणाम ह । सव क्लेशोको नष्ट करनेका शुद्ध परिणाम ही उपाय है । जो अपने आपके यथार्थस्वरूपको छोडकर अन्य किसी जगहमें लगते है, विपत्तिया ग्राती है, सकल्प “होगे, विकल्प होगे, क्लेश होगे । . जगत्‌के कोई पदार्थ मेरे नहीं है, सब न्यारे-त्यारे है। एकका दूसरेसे त्रिकालमे कुछ सम्नच नहीं होता । चाहे जितना वैभव हो, चाहे जितना पुण्बवान हो, उन्हे रमना स्वरूप ही.




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