सह्याद्रि की चट्टानें | Sahyadri Ki Chattane

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Sahyadri Ki Chattane by आचार्य चतुरसेन - Acharya Chatursen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सह्याद्रि की चट्ढाने ७ १७ कहा--- मैं सलाम भही करूंगा । क्यो नहीं करोगे बेटे ? शाह को सलाम करना हमारा धर्म है । हम उनके नौकर है । जीजाबाई ने कहा । मै तो नौकर नहीं हूँ माँ । पुत्र तुम्हारे पिता नौकर है । यह जागीर बादशाह की दी हुई है। किन्तु मै भ्रपनी तलवार से जागीर प्राप्त करूँगा । यहू समय ऐसी बाते कहने का नही है । पुत्र तुम शाही सेवा मे चले जाश्ो । कि नहीं जाऊँगा । यह तुम्हारे पिता की श्राज्ञा है पुत्र जाना होगा । अच्छा जाता हूँ पर सलाम मै नहीं करूंगा । मुरारजी पन्‍्त उन्हें समभका-बुकाकर दरबार मे ले गए । शाहजी वहाँ उपस्थित थे । उन्होने बालक दिवाजी को दाह के सम्मुख उपस्थित किया । परन्तु शिवाजी शाह को साधारण सलाम करके खडे हो गए न मुजरा किया न को्निश । चुपचाप ताकते खडे रहे । शाही श्रदब भग हो गया । यह देख शाह ने वज़ीर से कहा-- दिवा से पूछो कि क्या वजह है उसने दरबारी श्रदब से कोनिदका नहीं की । शिवाजी ने कहा-- मै जैसे पिताजी को सलाम-मुजरा करता हूँ वेसे ही श्रापको की है पिताजी के समान समभकर । शाह यह जवाब सुनकर हँस पड़े । उन्होने शाहजी की श्रोर देख- कर कहा-- दिवा होनहार लडका है । हम इसपर खुद है । दाहजी ने नम्रता से कहा बेग्रदबी माफ हो बच्चा है दरबारी अ्दब नहीं जानता । बादशाह ने भी हंसकर पुछा-- दिवा की शादी हुई है या नहीं ? जी हाँ पूना मे इसका ब्याह हुमा है ।




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