देव और विहारी | Dev Or Vihari

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Dev Or Vihari by श्री दुलारेलाल भार्गव - Shree Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १ नहं । प्रत्येक भापा-माषी मनुष्य अपने-अपने भाषा-भंढार के कुछ शदो को कक तथा छद को मधुर समझते हैं । 'मथुर'-शब्द ज्ावणिक है । मधुरता-गण टी पहचान भिड़ से होती है। शक्कर का एक कण जीभ पर पहुँचा नहीं छि उने बतज्ञा दिया; यह मीठा है। पर शब्द तो चक्खा जा नहीं सकता, फ़िर उसकी मिठाई से क्या मतलब ? यहाँ पर मधुरवा-गुण का आरो९ शब्द में करने के कारण 'सारोपा लक्षणा' है। छहने का भवन्त यह कि जिस प्रकार को वस्तु नीभ को एक विशेष घ्रानंद पहुँचाने के कारण सीढी कद्क्वाती है, उसी प्रकार कोई ऐसा शब्द, नो कान मे पढ़ने पर आनंदप्रद होता है, मधुर शव्दः कदा लायगा । রর शब्द-मघुरता का एकमात्र साक्षी कान है। कान के विना शब्द्‌ मधुरता का निर्णय हो ही नहीं सकता । अवएव कोन शब्द मधुर है और कौन नही, यष्ट जानने के लिये हमें कानों की शरण लेनी चाहिए। ईश्वर का थह अपूर्व॑ नियम है कि इस इंड्रिय-शान नौर विवेचद में उसने सब मनुष्यों में एडता ध्यापित कर रक्ष्खी है । झपदादों की बात जाने दीजिए, तो यह मानना पड़ेगा कि सीडी वस्तु संसार के सभी मनुष्यों छठो अच्छी लगती है। उसी प्रकार सुगंध-दुगंध आदि का हात्र है। कानों से सुने जानेवाले शब्दों का सी यही दाल है। आफिका के एक हृदशी को जिल अकार शहद भीठ छगेगा, उसी प्रकार आयज्ैंड के एक आाइरिश को भी । ठीक यही दशा शब्दों की है । कैसा ही क्‍यों व हो, बालक का तोतला बोल सनुष्य-मान छे कानों को अत्ता लगता है } पुरूष की घ्या स्त्री का ध्दर विशेष स्मणीय है। कोयल का शब्द क्यों अच्छा है, झोर कोवे का क्‍यों छुरा, इसका कारण तो छात्र ही बतत्ा सकते हैं। जंगढ्व सें जो वायु पोले दाँखों में समरकर अदुशुत शब्द उत्पक्




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