भाग्य | Bhagya

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Bhagya by ऋषभ चरण जैन - Rishabh Charan Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साग्य ११ ने लड़की की शिक्षा पूरी करने के लिए ही रुपया दिया था, झच पूरी होने पर छीन जिया । कोई वात नदीं !” श्र, इसके बाद भी घीरे-वीरे वह कु बड़वड़ाती रही । कई दिन वीत्त गए । सोच घु धला होने लगा । वात भूलने लगी । सा-बेटी के मुँह पर कभी कभी द्ास्य की रेखा दिखाई देने लगी । . एक बात और कहद दें। दयावती का मैका देहात में था । उसके पिता किसी समय भारी जमींदार थे, तीन बंदूकों के लाइसेंसयाफ्ता थे । मकान क्या; एक बड़े मदल में व रहते थे । चार-चार द्वाथी उनकी पशुशाला में चँघते थे, छोर उनके संबंध में कदने लायक तो चहुत-सी चातें हैं- जैसे उनके इलाकें में कोई मुकद्दमा अँगरेजी अदालत में न जाने पाता था, खुद फैसला करते थे, कई सौ 'झादमी, फौज की शक्ल में दथियार-वंद उनके यहाँ नौकर थे, इत्यादि--पर हम उनको एक दोष बताकर ही समाप्त करते हैं । यड़े तेज मिजाज और युस्तेल छादमी थे । पड़ोस के एक ठाकुर से एक वार लड़ गई । बात बहुत साधारण थी । मुकद्दमेवाजी शुरू हुई । सत्रद् बरस मुकदमा चला, श्र दोनो ही पक्षों का सर्वेस्व उसमें स्वाद्य दो गया । सहसा दयावती के पिता का देहांत हो गया बेटा कोई था नहीं, जो छुट्ठ था, सब दामाद का । पर अब बचा ही कया था ? जो दस-पाँच दज़ार था, उसकी दासाद को फ़िक्र क्या थी ? बचत, दामाद ने जाकर उनके घन से दो-एक कुएं, घर्म .शाले चनवा दिए, और वाक़ी घन उनक रिश्तेदारों में घाँट दिया। यानी, द्यावती के मँके में दो-एक दूर के रिश्तेदारों के श्यति- रिक्त और कोई न था । जब तक मौज . रही, रोज़ कोइ-न-कोई श्र टपकता था, पर दिन फिर, तो किसी की सूरत तक दिखाई




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