सत्यं शिवं सुन्दरम (भाग १ ) | Satyam Shivam Sundaram Bhag-1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
575
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रामानन्द तिवारी भारतीनंदन - Ramanand Tiwari Bhartinandan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ष्व ] মং হান নব
सम्पन्न सौन्द् सस्छृ्ति की जीवन्त परम्परा में साकार होकर लोक-जीवन को इताथे
करता है ।
जिस समास्मभाव को हमने सस्कृति, कला प्रौर काव्य का मूल श्राधार माना
है बहु वेदान्त के निग्पेक्ष ब्रह्मवाद तथा अधिकाय सौन्दरययास्त्र एव काव्यदास्नके
प्राकृतिक व्यवितवाद दोनो से भिन्न अनेक व्यक्तियों के श्रान्तरिक सामजस्य का
घनिष्ठ भाव है। वेदान्त के ब्रह्मगाद से इसका अन्तर यह है कि समात्मभाव
अनुभव की कोई ऐसी अवस्था नही है जो व्यक्तित्व से अतीत हैँ भ्रथवा घ्यक्तित्व
का तिरस्कार करती हो । इसके विपरीत वह् चेतना का एक ऐसा भाव है जो
व्यक्तियों की अ्रनेक्ता मे ही सम्पन होता है। इतना अवश्य है कि समात्मभाव की
स्थिति मे ये अ्रनेक व्यक्तित्व प्राकृतिक व्यक्तिवाद की भाति श्रपने व्यवितत्व की
इकाई मे ही सीमित श्रथवा रूढ नहीं रहते । इन व्यक्तियों मे एक प्रकार की
आन्तरिक पारस्परिकता उत्तन्न होती है और वे एक दूसरे के प्रति साम्य एव
सम्प्रपण के भाव से प्रसारित होने लगते हैँ । दढ्वैत और श्रद्वत की दार्थनिक पहेलियो
का ताकिक समाधान कठिन है । तक की दृष्टि से केवल इतना कहा जा सकता है
कि द्वत और अद्वेत की ताकिक पहलिया स्वय व्यक्तित्व की इकाई के झाग्रह पर
श्रवलम्बित हैं। अनेक व्यक्तित्वों का हेत और एकत्व दोनो ही व्यवितत्व की इकाई
की धारणा पर आश्रित है। इमीलिए वेदान्त के आचार्यो ने वडी सतकंता वे साथ
अपनी धारणा को अद्वेत' की सज्ञा दी है। आ्रात्ममाव अपनी इकाई मे रूढ व्यक्तियो
के द्वेत (अथवा अनेकत्व) और पृथक्त्व से श्रतीत है । वेदान्त के शुद्ध ब्रह्मवाद की
स्थिति व्यक्तित्व से पूर्ण निरपेक्ष भी हो सकती है। किन्तु हमारा सास्कृतिक
समात्मभाव ऐसी निरपक्ष स्थिति नही है। यद्यपि वह व्यक्तित्व की इकाई में ही
सम्भव नही हैं किन्तु व्यक्तित्व का तिर॒स्कार न करके वह एक आन्तरिक एव श्रात्मीय
भाव में उसका उनयन और विस्तार करता है। तक की अपेक्षा जीवन के साक्षात्
अनुभव में इस समात्ममाव का अधिक प्रभावशाली आभास मिलता है। मनुष्यो
के झान्तरिक और आत्मीय सबन्ध मे जहाँ व्यक्तित्व के प्राकृतिक अनुरोधो से ऊपर
उठकर एक साम्य एवं सम्प्रेषण उत्पन्न होता है, वही समात्मभाव की स्थिति है।
इसी समात्मभाव में सस्कृति, कला झौर काव्य के अ्रकुर उदित होते हैं तथा सौन्दर्य
एवं आनन्द के नन्दन खिलते हैं । सोन्दये इस समात्ममाव की अभिव्यवित का रूपः
है, सानन्द इमी आन्तरिक '“अनुभूति' का मम है, किन्तु ये दोनो पक्ष एक दूसरे से
अभिन्न हैं ।
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