आलोचना | Alochana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी-साहित्य के सन्दर्भ में भारतीय मध्य युग ५ देवता सत्य थे) शुर ঈ लिप देवता मायिक लगत्‌ मे रदे फे काण पारमार्थिक दृष्टि से श्रतत्य ये, परम्ठु उनके मूल मैं रइने वाला ब्द्मा सत्य था। इस प्रकार মোন मीमागा झी হাব ধা सुन्दर समस्वय बने गया । शामानुज, रामानन्द तथा गोत्यामी तुलसीदास श्राटि तव्य पियो की कृतियों में धर्म का यही रूप स्परीकृत शिया गया था । टैष्णय धर्म कै मागपत और पाखरान-सम्मदाय वया उसके सादित्य पा खिस मी इस बाल में दृथ्टिगोचर होता है। मागयतों ने प्चदेयोपासक रमार्त घर्म यो स्वीवार किया, यथपि उन्देनि शिव शरीर पिष्ु एरी प्रमितः पर श्रधिक जोर टिया श्रीर इस मिद्धान्त फ प्रतिपादग करने के लिए 'मल्दोपनिपत्‌र नामऊ प्रत्य ढी रचना वी। ये यैदिक पूजा-पद्धति की परुपरा के बुत निकट थे | इनवी पूजा-पढ़ति का पता 'बैंसानस सद्विता? से लगता है | इसके विपरीत पाश्यगान्न- सम्प्रदाय बाले स्मार्त पूजा पद्धति के बहुत भक्त न्ीं थे। प्रास्यरात-सदिवाएँ শানে দন और तमिलनाए श्रादि प्रदेशों में पाई जाती दे, लो लगभग ६०० राधा ८०० ई० के थीय में लिपी गई थीं। सट्टिताओं की रख्या परम्परागत १०८, किन्तु दात्तय में इससे वहीं श्रधिफ है ] इनमें से श्रय, दि्िइ!,दवायेय', गणेश?, तौर, (ईशयर?,'डपेद्रा तथा पृद्दू बदा? थादि प्रतिद्ध हैं। इनमें से कई उत्तर भारत में लिपी गई थीं। इन सद्दिताश्रों में जो एक জিহাদ पात दिलाई पती है, वद्‌ टै वैध्यु थमं कै श्रत्व याक-छिदान्ता का तमावेश । इनके ग्रविषाय विपय £ (१) शान पाठ (दासंनिक ध्म-परिशान); (२) योग पाद (योग-श्िदा तथा पदर), (३) (विषाद (मन्दिर तथा मूति निर्माण) और (४) चर्या पाद (पूजा पति) । इस सम्प्रदाय का पर्मपरशन यद्दुत-कुठ 'मद्दामारत? के नाराययीय श्रार्यान रे छपर श्रवलम्बित है और इसवा दर्शन सेश्वर योग के ऊपर । इसका दर्शन श्रौर सृष्टि परिश्ञान पण्च ब्यूट्टों (१, वासदैय, २, संतर्पण, ३. प्रद्मप्न; ४. प्रनिसद्ध तथा ५, जक्षा) में व्यक्त किया जाता है; जो 'साख्य दर्शन! से मिलता-पनता है । লালন शरीर में गुहय शक्तियों के लर्कों का वर्णन तथा योग साधना और ठिद्धियोँ वा गियस्ण भी शारो কা माँति पाथरात्र सह्िताश्ों मे मिलते हैं । इसी प्रवार मन्न शरीर यन्य मी पष्ट जति हैं। इनके मद्दा मन्त्र हैं? (३) 'भोौस नमो भगषते बामुदेघाय” श्रौर (२) 'भ्ोम नमो नाराबणाय |? इनमें से प्रथम भागय्तों श्रौर द्वितीय श्री वैष्णुर्यों में प्रचलित है । इन सहिताश्रं में वाममार्गी तथों का पूर्णतः श्रमाव है । इसकी पूजा पद्धति श्रन्त्यज् वो छोड़कर समी के लिए, তন थी । पि আনন! ই ভিছ भी इस पंथ छा द्वार सुल गया । यद पाश्चयत्र घर्म मद्दा- मारत याल के वाद मुदुर दक्षिण मैं सासतों के द्वार पहुँचा था और मध्य युग के आरम्भ में प्रयतत; तमिल प्रदेश के आलपार सस्ते में पाया जाता दे। 'नाएयण! तथा “आरत्मवोध उपनिपदः शी वैष्यमे पर मचलित ये । 'हृशिदतापदीय उपनिषद्‌? से मालूम হীরা ই কি सतिद्वायतार थी डा मी वैष्णो मैं प्रचलिद थी | रामायत राम्प्रदाय का डदय मी इसी छाल मैं हो गया था | बाहमीकि रामायण! के टे काह मं राम के इद्र श्रीर्‌ उसके उपास ए वरुन मिलता है, কিন एक गदित सम्प्रदाय के रूपए में इसके श्रस्तित्य का पुराना प्रमाण कोई नहीं पाया जाता | पर रामपूर्व जापनीय उपनिषद्‌ः से स्पष्ट है कि आठयी-नर्दी शताब्दी तक रामायत-पैष्णय सम्पर- दाय श्रट्तित में थ्रा गया था | “अगस्त म॒तीदरण सद्दिताः इस सम्प्रदाय का प्रसिदर प्रन्य था। खकरा মহালল शमं समाप न्मया] वैष्णव सम्प्रदाय के प्रायः समानारार शैय सम्प्रदाय का विसार श्रीद पिन हुआ। होठ




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