सत्यागुणव्रत | Satyagunavrat

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Satyagunavrat by शोभाचन्द्र भारिल्ल - Shobhachandra Bharill

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जवाहर किरणावली |] _ রর [ ११ तना दो जाता दहै, तो क्रर-प्राशियों की ऋरता दूर होने में संदेह ही क्या है ? इंसकें विपरीत, अर्थात्‌ अपने दुगु णों को दूर किये विना, क्ैवल दूसरों को दबाने लिए जो सत्याग्रह किया जाता है, वह सत्या- प्रह दराग्रह हो जांता है और स्वय॑ करने वाले का दी नाश कर देता है. एसे भी अनेक उदाहरण विद्यमान है ष भगवान महावीर ने सत्याग्रह का प्रयोग पहले अपने ही ऊपर कर लिया-था-। इससे वे, चण्डको शिक एसे. विषधर सष के स्थान पर लोगो के मना करते . हए भी, निभयता-पू्कं चले गये । उस चण्ड- कौशिक ने--जिसकी टष्टि मात्र से दी जीवों कौ गल्यु का प्रालिगन करना पडता था--भगवान्‌ महावीर को अपने भयंकर विपेले दांतों से काटा भी, लेकिन सत्य के प्रताप से वह विष भगवान्‌ की किंचित माच्र भी दानि न कर सका । उल्टे चण्डकोशिक की तामसी प्रकृति भगवान्‌ महावीर का सात्विकी-प्रकृति से टकरा कर शांति हो गई ओर भगवान से बोध पाकर वह कल्याण-सार्ग का पथिक बना | जिसने सत्य के द्वारा अपनी आत्मा को बलवान बना लिया है, वह .मृत्यु से भी भय नहीं करता । प्राणों के. असीम संकट में पड़ने पर भी, ऐसा आत्मबली धेयं से जरा भी `वि चलित नदीं ` होता ओर प्रसन्नतापू्वंक अपने प्राणों का त्याग करता है । -; गजसुकमाल मुनि; श्मशान मे बारहवीं भिज्ञ .पडिमा.धारण किये हुए थे। इतने: में सोमल ब्राह्मण-आया । उसने-क्रोधित हो, गजसुकमाल मुनि के सिर-पर चारों ओर.-.मिट्टी को पालः बना: उसमे; जलते हए लाल २“खेर:के:अंगारे सर दिये ।- लेकिन गजसुकमाल मुनिं का ध्यान भग.न हुआ 5 {+ इस 'भीषण-विपत्ति से भी, गजसुकमाल: सुनि-का हृदय ভুল नहीं हुआ; न ब्राह्मण के प्रति उसके हृदय में क्राध ही उत्पन्न हुआं:।




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