चन्दाबाई-अभिनन्दन-ग्रन्थ | Chandabai Abhinandan Granth

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Chandabai Abhinandan Granth  by श्रीमती जयमाला जैनेन्द्रकिशोर जैन - Smt. Jaymala Jainendrakishor Jainश्रीमती सुशीला सुलतानसिंह जैन - Smt. Susheela Sulataansingh Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लम्वादकीय जब से यह ग्रन्थ समपित करने का मातस में चित्र आया तब से भ्रबर तक की गतिविधि का मिरूपण प्रपना एक प्रस्तित्व रखता है । १६४८ मं महिला-परिषद्‌ में प्रस्ताव स्वीकृत हुआ । सर्वप्रथम संपादकों का एक मंडल बना, जिसने स्तुत्य कार्य संपादित किये पर ग्रन्य की सामग्रियाँ उच्च बौद्धिकता के स्तर का दावा न कर सकी । फलत: दूसरा मडल बना जो जाते-जाते ३-४ वर्षों में थोड़ा-सा कार्य कर सका । परिषद्‌ की सजगता बढ़ी तो वह तीसरा मंडल बना जिसने झपने कार्यों की सुदृढ़ नींव डाली झौर यह्‌ भ्रन्थ १६५६३ के सितम्बर मास से प्रकाशित होना शुद हुभ्ना । इसकी तोन-चार रूप-रेखाए' बनों भ्रौर बियड़ीं । बाद में जाकर हमलोगों ने श्री जैन-सिद्धान्त- भवन, भारा के सहयोग से निम्न प्रकार की सामग्री से ग्रन्थ की प्राण-प्रतिष्ठा को सेवारा :--- (१) जीवन, संस्मरण, भ्रभिनन्दन एवं श्रद्धांजलियाँ--इस विभाग में माँश्ी के जीवन फी समस्त संवेदनाश्रों से स्पंदित सामग्रियों को रखा गया है जो माँश्री के जीवन के समस्त विकास झौर प्रसार को समझने भौर समझाने में सतत प्रयत्नशील हे । निष्कपट श्रद्धा से धुला हुआ यह विभाग, म्रपनी सत्ता झौर छाया दोनों समेटे बंठा है । (२) दर्शन भौर घमं--इस खंड में ज॑न-दर्शन से सम्बद्ध पर्याप्त उपयोगी, ज्ञानवर्धक सामग्री का संकलन किया गया है| इससे ज॑न-दर्शन और घमं की परम्परा का गंभीर अध्ययन होगा । (३) इतिहास श्रौर साहित्य--इसको स्वस्थ बनाने में हमें विशेष कठिनाई हुई तो भी उचित सात्रा मे जन इतिहास भ्रौर साहित्य इंसकी चिन्ताधारा में प्रवगाहन कर ही रहा है । (४) नारी--अतीत, प्रगति और परम्परा--पह সথন में नवीन सुझाव है भौर है बेजोड़ । उपेक्षित नारीवगं कमी भी, कही भी अपने इतने उज्ज्वल रूप में उपस्थित नहीं हुआ था जितना कि इसमें सजग रूप से समादुत है। इससे ज॑न-तारी के समस्त प्रगो पर उत्तम प्रकाश पड़ा है, ऐसा हमारा भाज का दावा है । (५) विहार--इस खंड के लिये सामग्री हमे भस्यधिक प्राप्त हुई । बिहार के साहित्य मनीषिर्योसे हमें पूर्ण योगदान मिला किन्तु अधिकाश सामग्रों जैन संस्कृति के प्रन्ेषण से रिक्त थी, परतः इस खंड के प्रायः समो লিঘল্দ श्रो ज॑ न-सिद्धान्त-मवन आरा के तत्त्वावघान ম' লিলিন ভুত ই । यों तो प्राय: समग्र सामग्री का संकलन हो 'मवन' द्वारा ही किया गया है । इस प्रकार ग्रन्थ संपादित किया गया । हमने इसमें श्पनो सारो लगन और श्रद्धा को संक्द्धित किया है, इसका भावी महस्त्व-प्रकाशन तो समाज के हाथों में है। संपादन में श्री प्रो० खुशालचन्द्र जी गोरावाला एम० ए०, साहित्याचार्य, काशी; श्री पं ० के लाशचल जी सिद्धान्तशास्त्री, भाचाओे स्पाह्यद विद्यालय জাহী সীং जैत सिद्धान्त भवन, झारा के हम झागारी हूं जिसकी प्रेरणा को स्निप्प छाया में ग्रन्थ के विकास और निर्माण की पथ -रेलाएँ बनती रहीं ।




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