शिक्षण विचार | Shikahan Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निवृत्त-शिक्षण १७ हो जाती थी। एसी स्थिति मे मानव-जाति के तिरस्कार से उसका यह मत बन गया हो कि “मानव एक जानवर होकर शिक्षण से थोडा-बहुत' आदमी बनता हं तो उसका मतर्व हम भलीमाँति समझ सकते है । पर रूसो के बारे में हमे कितनी भी रहानुभूति क्यो न हो, उसका ऐसा मत, फिर बह किसी भी या कंसी भी स्थित्ति में क्यो न कहा गया हो, निस्सदेह अनुचित है । मानव स्वभावतः इष्ट नीं मानव को स्वभावत दुष्ट मानने मे निखिकरू मानव-जाति का अपमान तो ह ही, निराच्वाद भी इसमे कमार का हं, मानव मूलत दुष्ट हो, तो शिक्षा की कोई आशा नही रह जाती । चूँकि ताकिक दृष्टि से किसी वस्तु से उसका स्वभाव सदा के लिए अलग कर देना असभव है, इसलिए यदि मानव-स्वभाव मूलत दुष्ट हो, तो उसके सुघार के सारे प्रयत्न व्यर्थं सिद्ध होकर निराशा- वाद का जौर साथ ही पाशविक वृत्ति का साम्राज्य शुरूहो जायगा। कारण, शिक्षण की आशज्मा समाप्त होने का अर्थ ही है, दण्ड-राज्य की स्थापना। आजकल कितने ही छोग आवेश में कहते हे कि 'हम लोगो का ब्रिटिश-सरकार पर से सदा के लिए विश्वास उठ गया।' सुदंव से उनका यह कहना নঈলভ আনহা কা ভী होता है। यदि वह सच्चा होता, तो किसी भी गान्तिमय आन्दोलन का मतलरूब 'निराणा का कर्मेयोग' मार रह जाता । स्वावख्वन की दुष्टि से यह कहना ठीक ह कि सरकार पर विद्वास करने से काम नही हो सकता |” पर यदि इसका अर्थ यह हो कि हमारा दृढ विश्वास र




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