कृषिकर्म और जैनधर्म | Krashi Karm Aur Jaindharm

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Book Image : कृषिकर्म और जैनधर्म  - Krashi Karm Aur Jaindharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ५ | सभारंध की दृष्टि से कृषि का श्रावक के लिए निषेध करना उचित नहीं है। कृषि-काये में आरंभ नहीं है, यह कहना यहाँ अभीष नहीं है। कृषि में ही क्‍यों, आरंभ तो छे।टे से छेटे काये में भी हेाता है। यहाँ तक कि घर आये हुए को आसन देने में भी आरंभ दोता ही है। कहने का आशय यह है कि कृषि का आरंभ त्यागना श्रावकधमं की मर्यादा में नहीं देः । श्रावक की येग्यतानुस।र उसके आचार की अनेक कोटियों हैं । उसका आचार अनेक प्रकार का हेता है। कोई श्रावक साधारण त्यागी होता है, कोई प्रतिमाधारी होता दे । जेनशास्त्रों में बतलाया गया है कि प्रन्येक प्रतिमाधारी क्राचक्त भी कृषि के आरंभ का त्यागी नहीं होता। प्रतिमाओं का सेवन क्रमपूवैक ही होता है और आरंभत्यागप्रतिमा (पडिमा) में श्रावक खेती का त्याग करता है। दिगम्बर संप्रदाय के सुप्रलिद्ध अचाये श्रीसमन्तमद् कहते हें-- सेचाकृपिवाशिज्यप्रद्ुखादार स्थत्तों व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोया5सावारम्भविनिवृत्त; || --रष्नकरण्डक श्रावकाचार, श्र, হ। . अधथीत-लेबा, कृषि और व्यापार आदि आरंभ से, जे हिंसा के हेतु हैं, जे श्रावक निदुत्त दाता है चद् श्रररभेत्यान ` प्रतिमा फा पालक कहलातः है ।




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