बापू की प्रेम-प्रसादी | Bapu Ki Prem-Prasadi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तरह और जीवन प्रणालिया वे सभी लोग गाधीजी से जाकर मिले। श्रसनता के साथ हमने उनके नतृत्व को स्वीकार क्या जौर उनवे दिखाये हुए कार्यो मं जपना अपना हिस्सा जदा करने के लिए प्रवत्त हुए । उस समय उनके निकट सपक म आये बे उनके गिन चुने आत्मीय जनो में श्री घनश्यामदासजी विडला वा स्थान अनोखों है । यह तो सभी जानते है कि घनश्यामदासजी देश के इन गिन धनिका मे से एक हैं। उनका मुख्य क्षेत्र ता औद्योगिक है रहा है। लोग यह भी जानते है कि उहोंने यूत्र कमाया है और अनेक सत्वायों म मुक्तहस्त से खूब खच भी क्या है। गाधीजी নী অন भी धन वी जरूरत महसूस हुई, उहांने बिना सकोच घनश्यामदासजी पे सामत बहू रखी और घनश्यामदासजी ने विना विलव के उसकी पूति की है। ५४ गाधीजी की अनेक शिनानोमे एक महत्व की शिधावी वि “धनिकोको अपने-आपको अपनी सपत्ति के घनी नहीं भानना चाहिए विम दरष्टी.वनकर समाज की भलाइ के लिए उसका उपयोग करता चाहिए ।/ “मह समाज्‌ की ही सपत्ति मेरे प्रास है, मैं उसरा घरोहर या विश्वस्त हू,” ऐसा समझकर ही उसका विनियोग करना चाहिए। घनश्यामदासजी को यह शिक्षा तत्वत मांग न होते हुए भी उहोने वह्‌ अच्छी तरह से हल्यग्रम की है। देश म अनेक जगहां पर विडला के ताम से जो शिक्षण सस्थाएं धमशालाए अस्पताल आदि चल रहे है वे दसी गवाही दत ह । उनकी अपनी सस्याआ। के अलावा ठेसी अनेक सस्याए दश मरै, जो प्रधानतया बिडलौ के दान सु_ चल रही है! माधीजी की करीव करीव सभी सस्याए घनश्यामिरासजी के धन से तार्भावत हुई हैं। स्व० जमनालालजी बजाज को छाडक्र शायद ही दूसरा कोई धनिक हागा, जिसने घनश्यामदासजी के जितना गाधी काय का आर्थिक बोझ उठाया हा । एफ प्रस्तिद्ध किस्सा है ग्राधीजी दिल्‍ली आय हुए थे। उहो दिना ग्रुरदव रवीद्धनाथ भी अपनी विश्वभारती के लिए धन सग्रह करने हेतु दिल्‍ली पहुचे। वे जगह जगह अपन नाटय और नत्य वा काय कम रखत थे और वाद-म लोगा स धन के लिए प्राथना करत थे। गाधीजी का यह सुनकर बडा दु ख हुआ। इतना बडा पूष्प बुदापम धतर इफ्ट्टा करन के लिए, सा भी वेवल साठ हजार रुपया व लिए इस प्रकार अपन नाटग्र और नत्य वा प्रदशन करता फिरे, यह गराधाजी को असह्य উজা। उह तुरत घनश्यामदासजी ধা टी स्मरण हुआ । महादेवभाई सं उहं कटलवा दिया आप अपने धनी मित्रा को सिं नौर छद जनं दस-दख हजार कौ रवम गुस्टव को भेजकर हि दुस्तान वा इस शम स बचा ठे । *




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