भारतीय प्राचीन लिपिमाला | Bharatiya Prachin Lipimala

Bharatiya Prachin Lipimala by गौरीशंकर हरिचंद ओझा - Gaurishankar Hirachand Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूमिका के प्रारंभ के लेखों को न समझ सकें तो भी लिपिपत्रों की सहायता से वे प्राचीन लिंपियों का पढ़ना सीस्व सकते हैं. दूसरा कारण यह है कि हिंदी साहित्य में अब तक प्राचीन शोध संघधी साहित्य का छन्माव सा ही है. यदि इस पुस्तक से उक्त अभाव के एक अणुसात्र झंश की सी पूर्ति हुई तो सुभ जैसे हिंदी के तुच्छ सेवक के लिये विशेष आनंद की बात होगी. इस पुस्तक का क्रम ऐसा रक्‍्खा गया है कि इं. स. की चौथी शताब्दी के मध्य के झासपास लक की समरत की लिपियों की संज्ञा ब्राह्मी रक्‍खी है. उसके बाद लेखनप्रचाह स्पछ रूप से दो स्रोतों में विभक्त टोता है जिनके नाम उत्तरी और दचिणी रक्‍्खे हैं. उत्तरी शैली में गुप्ठ कुटिल नागरी शारदा और बंगला लिपियों का समावेश शोता है और दक्षिणी में पश्चिमी मध्यप्रदेशी तेलुगुःकनड़ी ग्रंथ कलिंग और तामिव्ठ लिपियां हैं. इन्हीं मुख्य लिपियों से मारतवष की समस्त वर्तमान उर्दू के झतिरिक्त लिपियां निकली हैं. धंत में खरोछी लिपि दी गई है. १ से ७० लक के लिपिपन्रों के बनाने में क्रम ऐसा रक्‍्खा गया है कि प्रथम स्वर फिर व्यंजन उसके पीछे क्रम से व्यंजन स्वरमिलित व्यंजन संयुक्त व्यंजन जिद्वामूलीय और उपध्मानीय के . चिज्ठों सहित व्यंजन और अंत में आों का संकितिक चिक्त यदि हो तो दिया गया है. १ से ५६ लक और ६४ से ७० तक के लिपिपत्रों में से प्रत्येक के ंत में अभ्यास फे लिये कुछ पंक्तियां सरूल शेखादि से उद्धृत की गई हैं. उनमें शब्द समासों के अनुसार अलग अलग इस वियार से रक्‍्खे गये हैं कि विद्यार्थियों को उनके पढ़ने में सुभीता हो. उक्क पंक्तियों का नागरी अत्तरांतर भी पंक्ति ऋम से प्रत्येक लिपिपत्र के चणुन के अंत में दे दिया है जिससे पढ़नेवालों को उन पंक्तियों के पढ़ने में कही संदेह रद जाय तो उसका निराकरण हो सकेगा. उन पंक्तियों में जहां कोइ अंतर झस्पष्ट हे झथवा छूट गया है अच्चरांतर में उसको ... चिक्त के भीतर और जहां कोइ अशुद्धि है उसका शुद्ध रूप ... यिक्त के भीतर लिखा है. जहां मूल का कोई झंश जाता रहा है वहां......ऐसी बिंदियां धनादी हैं. जहां कहीं डश और डह संयुक्त व्यंजन सरूल में संयुक्त लिखे हुए हैं वहां उनके संयुक्त टाइप नहोंने से प्रथम अच्षर को हलत रखना पड़ा है परंतु उनके नीचे झाड़ी लकीर बहुघा रख दी गई है जिससे पाठकों को मालूम हो सकेगा कि सूल में ये अत्तर एक वूसरे से मिला कर लिखे गये हैं. सुझे पूरा विश्वास है कि उक्त लिपिपत्रों के अंत में दी हुई स्रूल पंक्तियों को पढ़ लेनेवाले को कोई मी अन्य लेख पढ़ लेने में कठिनता न होगी. लिपिपत्र ६० से ९४ में सूल पाक्कियां नहीं दी गई जिसका कारण यह हे कि उनमें तामिव्ठ तथा वडेद्ध॒त्तु लिपियां दी गइ हैं. वर्णी की कमी के कारण उन लिपियो में संस्कूत माघा लिखी नहीं जा सकती वे केवल तामित्ठ ही में काम दे सकती हैं र उनको लामिछ्ठ भाचा जाननेवाले ही समभक सकते हैं तो भी बढुघा प्रत्येक शताब्दी के लेस्वादि से उनकी धविरतृत वरशमालाएं बना दी हैं जिनसे तामिव्ठ जाननेवालों को उन लिपियों फे लेखादि के पढ़ने में सहायता मिल सकेगी. लिपिपत्रों में दिये हुए अक्षरों तथा अंकों का समय निणेय करने में जिन लेखादि में निश्चित संबत्‌ मिले उनके लो वे ही संवत्‌ दिये गये हैं पर॑तु जिनमें कोई निश्चित संबत नहीं है उनका समय बहुधघा लिपियों के झाघार पर ही या अन्य साधनों से लिखा गया है जिससे उसमें अंतर होना संभव दे क्योंकि किसी लेख या दानपत्र में निर्थित संवल्‌ न होने की दशा में फेवल उसकी लिपि के झाघार पर ही उसका समय स्थिर करने का मागे निष्कंटक नहीं है. उसमें पीस पचास ही नहीं किंतु कमी कभी तो सौ दो सो या उससे भी अधिक वर्षों की चूक हो जाना संभव हे पेसा में अपने अनुभव से कह सकता हूं.




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