सुख की साधना | Sukh Ki Sadhana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लोन दु:खी क्‍यों रहते हैं ? १६ का कारण होती है श्रौर इसका प्रतिकार आत्म-सम्मान के विकास में निहित है | परन्तु इसकी उपलब्धि ऐसे सफल कार्ये-कलापों के माध्यम से होनी चाहिए, जिन्हें वस्तृपरक अ्रभिरुचियों से प्रेरणा मिली हो । अहम्मन्य और आत्मातक्त व्यक्ति में यह अन्तर है कि वह मोहक वनने के वदले शक्तिशाली वनना चाहता है | वह चाहता है कि लोग उससे प्रेम न करें, वल्कि भय खायें । इस वर्ग के अन्तर्गत वहत-से पागल और इतिहास के अधिकांश महान्‌ व्यक्ति बाते हैं । ग्रहंकार की দাঁলি হাদি का मोह भी साधारण मानव-स्वभाव का एक प्रदल अंग है और इसलिए उसे स्वीकार करना आवश्यक है । यह श्रापत्तिजनक तमी होता हैं जब वह सीमोल्लंघतन कर ले या उसका सम्बन्ध वास्तविकता के श्रपयति बोच से जुड़ जाए। ऐसी स्थिति उत्पन्त होने पर आदमी दुःखी और मूर्ख, दोनों नहीं तो इनमें से एक अवद्य हो जाता हैं| यदि कोई पागल अपने-प्रापको राजा समझता है, तो यह सोचकर वह एक प्रकार से सुख का अनुभव कर सकता है परन्तु उसका यह सुख ऐसा नहीं है जिससे किसी त्ममद्ार व्यक्ति को ईर्ष्या होगी। मनोव॑ज्ञानिक दृष्टि से महान्‌ सिकन्दर मी पागलोके वर्ग में ही झ्राता है, यद्यपि उसमें पागल के स्वप्त को साकार करने की सामर्थ्य थी । परन्तु वह अपने स्वष्न को-- जो उसकी सफलताओों के साथ-साथ वढ़ता गया--स्ाकार न कर सका। जब यह निश्चित हो गया कि वह संसार का सबसे बड़ा विजेता है तो उसने ईङ्वर वनने का निङचय कर लिया 1 क्या चह्‌ सुखी मानव या? उसकी पीने की लत, उसकी कऋ्रोघोन्मत्तता, स्त्रियों के प्रति उदासोनता, ईश्वर होने की घोपणा---ये सब बातें बताती हूँ कि वह सुखी नहीं था। मानव-स्वभाव के किसी एक अंग को दूसरे सभी अंगों की उपेसला ऋरते हुए विकसित करने में परम संत्तोप नहीं मिल सकता । इसी प्रकार सारे संसार को श्रपने भ्रह की शोमा-निर्माण की सामग्री समझने से भी परझ सम्तोप की उपलब्धि सम्भव नहीं है। साधारणतया ग्रहम्मन्य व्यकिति-- चाहे वह पायल हो या ताममात्र को प्रकृत--क्िसी घोर अपमान की




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