कांग्रेस का इतिहास खंड - ३ | Congress Ka Itihaas Khand - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
59 MB
कुल पष्ठ :
596
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)= ६ ৬
৪ ९
“पच्छिमी सभ्यता के बादर, पुराने के द्विलाक् नये का जो संघर्ष हुआ है उसका नतीजा
यह दुआ है कि एक बड़ी गद्दरी बेचेनी फेल गई दै। एशिया में यद्ध भावना बहुत जोरदार बन
गई द्वे । इस परिवर्तन की रफ्तार ओर इसका विस्तार और कहीं भी इतनी हदं तक नहीं पहुंचा
है, न घद्द श्रोर जगहों में हृतना दु,खद, या ऐतिहासिक दृष्टि से मह्त्व-पूर्ण बन सका है।
यद्द मद्दाद्वीप न केवल्न उबत्न रद्दा हे, बल्कि इसमें अराग क्रग चुकी है । एशिया के परिवतंन का
विघ्तार बड़ी दूर तक की सरद्ददों तक हुआ है और करोड़ों मनुष्यों पर उसका प्रभाव दै।
इसके संघर्ष बड़े प्रबन्न हुए हें--दूसरी जगहों की बनिस्बत यहाँ ज्यादा क्षोभ फेज्ञा है| हिन्द-
महापागर से महाद्वीप के उत्तरी छोर तक यह पत्र द्वो रद्दा है। वधम कॉर्निश के कथनानुसार
भूगोकज्ष का सम्बन्ध महत्त्वपूण भूखण्डों से होता है श्रार इतिद्दास का विशिष्ट युगों से ।
इसीलिए किसी देश के ऐतिहासिक भूगोत्र में हमें निश्चय करना होता है कि उसकी
कहानी के कौन-ते विशिष्ट युग में श्रनुकूल्ल परिस्थितियां श्राह थीं । मोजदा ज़माने में ऐति-
हासि भूगोल्ञ एशिया के दृक़ में मालूम पड़ता दे । १८४२ से पच्छिमी ताक़तों ने च॑'न में जो
कुछ द्वासिल किया था वद्द करोब-करीब सभी खो दिया। श्रार्थिक दृष्टि से भी श्रव एशिया दुनिया
में मुख्य सामाजिक स्थिति द्वासिल करने की कोशिश कर रहद्दा है ।
१8वीं सदी की शुरूआत का ज़माना ऐसा था जब्न उपेक्षित भूखणहों का साबका दुनिया
की बढ़ी-बढ़ी कोमों से पड़ा । इस सम्बन्ध से एशिया का पुनर्स्थापन हो गया और वह श्रपने
आदर्शो की छाप बाहरी दुनिया पर डाल्नने लगा। टंगोर और गांधी एशिया के बौद्धिक
प्रसार की मिसालं ह । सिकन्दर महान् का पूरं श्रौर परिचम को मिज्ञाने का स्वप्न
पुनर्जीवित हो रहा दै । एशिया का समन्वथकारी श्रादशं एक एमे विकास कीश्रोरक्ञे जा रदा, जो
मुक्ति की दिशा में है। एशिया मद्दाखणड अपने भविष्य में विश्वास रखता है श्रौर उसका यह
भी विश्वास है छि वह संसार को एक सन्देश देगा । उसमें आत्म-चेतनता जग रही है, जो चंगेज़
खां की वद्द यादगार ताजञी कर देती दहं जिसने सबने पदे एशिया की एकत का श्रान्दोल्ञन चलाया
था। उन भावनाश्रों को जापान मं समुचित उवर भूमि मिल्नी । पर सारा एशिया इस बात को
महसूस करता दै कि कनफ्युशियमसके হাতহী লুল श्रमी तक श्रगम्यवस्थित हाब्रतमें जी रहे हें,
हम उस शांति की मंजिल से दूर हैं, जिसमे “कुछ स्थिरता! मित्रती हे और वह श्रन्तिम शांति
की अ्रवस्था” तो अ्रभी हमारी दृष्टि में नहीं श्राई है),
दुनिया अरब जुदा-जदा कोर्मो का समूह नर्हा ই। राष्ट्रीयवा को ब्यापक श्रथ में अ्रन्तर्राष्ट्रीयता
के सिद्धांत में बदल देने पर भा उसे उधर दूर तक पहुँचानेवाल्ले परिवतंनों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त
रूप में नहीं मित्रता जो दूसरे विश्व-वब्यापी महायुद्ध ने इसके स्वरूप में ल्ञा दिया दे | उसी की
बदोज्ञत हिन्दुस्तान के साथ एक स्वतंत्र श्रक्षग टुफ्ड़े के रूप में बर्ताव नहीं हुआ । इसी कारण
दुनिया मि० विन्सटन चचित्न के हस भांसे से परितुष्ट नहीं हुई कि हिन्दुस्तान का मामद्धा तो
इंग्लेयड का श्रपना दे ओर अटलांटिक का समझौता ब्रिटिश साम्र।ज्यान्तर्गत देशों पर
ल्ञागू नहीं होगा । हिन्दुस्तान अब त्रिटिश-मवन का महत्वपूर्ण भाग नहीं रहा।
यह बात श्रव श्राम तौर पर स्वीकार कर ली गई द्वेकि हिन्दुस्तान संघार के धर्मों का
सन्धि-स्थक्ष झोर विश्व-संस्कृति का एक संस्थत्न है, पर साथ ही यद्द देश संसार के ध्यान में घ्रव-
) एशिया श्रौर श्रमेरिका, जून १६९४४, पृष्ठ २७९
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