पन्त का काव्य और युग | Pant Ka Kavya Aur Yug
श्रेणी : समकालीन / Contemporary
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25.1 MB
कुल पष्ठ :
401
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्थापना थ उपचेतन-प्रवृत्ति 105000०घंए८ पर. नियन्त्रण और विजय का परिणाम है । क्योकि यह सघषं और विजय वैयक्तिक नहीं सामा- जिंक हूं अतएव सौन्दय॑-बोध भी सामाजिक वरदान ही हें । यदि सौदर्य को प्रवृत्ति मान लिया जाय तो. इसे हमे पशुओ में भी स्वीकार करना होगा । इस प्रकार सत्य को भी हम किसी अखण्ड और अपरिवर्तनीय स्थिति के रूप में नहीं देख सकते । सत्य का दाब्दाथं विद्यमानता हें और सामान्यत यहीं समभा भी जाता हें किन्तु केवल विद्यमानता ही सत्य नहीं और न सभी विद्यमानताएं ही सत्य हैं । यदि केवल विद्यमानता को सत्य मान लिया जाय तो निरन्तर होनेवाला तीव्र परिवतंन न तो हमारे विचारों का ग्राहय होगा और न भावों का गम्य और यह तीव्र परिव्संन ही प्रारभिक विद्यमा- तता यावतित्व-है। यदि सभी विद्यमानताओ को हम सत्य मानले तो विश्िप्त का प्रलाप ओर स्वप्त सचरण भी सत्य जाना चाहिए । विक्षिप्त की वृद्धि या भावना से कोई विद्यमानता सत्य हो सकती हूं और इसी प्रकार स्वप्न का सुख-दुख भी स्वप्नस्थ व्यक्ति के लिए सत्य ही है किन्तु यह व्यक्ति की उपचेतन स्थिति ही है उसका समाज से व्यक्ति की चेतन स्थिति से कोई सबंध नहीं यही कारण है कि वह सत्य नहीं समभा जाता । अत. सत्य विद्यमानता को नहीं कहा जा सकता क्योकि हमे उसकी चेतना नहीं हो सकती । परिणामत.. विद्यमानता का क्या हो सकता हूं यही सत्य हूं क्योकि विद्यमानता हमें सामाजिक परिवृत्ति में परिचय देती हैं और वह पिछले के आधार पर हुई होती है । सत्य और सौन्दयं की इस परिभाषा के अनुसार महादेवी जी का काव्य का लक्षण ठीक नही जान पड़ता क्योकि अन्तर्यंथाथ और वा ह्म यथायें ८6 छिप & ८०९८8 बिम्ब-प्रतिबिम्बरूप मे एक दूसरे को इस तरह प्रभावित करते रहते ह कि उनकी सपृक्तता को
User Reviews
No Reviews | Add Yours...