बगुला के पंख | Bagula Kai Pankh

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Bagula Kai Pankh by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बगुला के पंख १३ है मेरी ।' शेरा नाम जगनपरसाद है--मुंशौ जगनपरसाद ।' 'ऐँ ? क्या कहा ?” शोभाराम ने आंखों में आइचय मरकर कहा । मुंशी जगनपरसाद ।' यह कव से ? বিষ, जब से पैदा हुग्ना तभी से ।' जुगन्‌ ने हंसकर कहा । “लेकिन भई, तुम तो मुसलमान हो ।' 'जी नहीं । वह तो मैंने जेल में भूठा ही परिचय दिया था ।' 'कमाल हो गया । तो तुम हिन्दू हो ?” 'जी हां, जी हां ।' जुगनू ने हंसकर मुख फेर लिया। (हुत सासे , शोभाराम ने कहा । परन्तु जुगनू घबरा रहा था कि कहीं शोभाराम उसकी जात न पूछ बैठे । पर शोभाराम ने और जात-पांत की बात नहीं की । वह इधर-उधर की वात करता रहा । घर झा गया । शोभाराम ने घर में आकर पत्नी से कहा, यह मेरे दोस्त मुंशी जगनपरसाद हैं। इनके लिए ज़रा गुसलखाना ठीक कर दो और एक साफ धरली घोती श्रौर कुर्ता भी वहां रख दो !' फिर जुगनू कौ भ्रोर परूमकर कहा, “भई मुंशी, ्रव तुम नहा लो श्रौर कपड़े वदल लो जिससे तुम्हारी सूरत भले भ्रादमी जैसी हो जाए। फिर खाना खाकर श्रौर बातचीत होगी ।' जुगनू चुपचाप उठकर गुसलखाने में चला गया। दिल उसका घड़क रहा था। वह सोच रहा था, देखो, भ्रव विधाता क्या खेल दिखाता है । | श्रपने इषर के जीवन भें पहली ही वार गुसलखाने भें फव्वारे के नीचे वैठकर, बढ़िया सुगन्धित साबुन लगाकर वह नहाया, नहाकर स्वच्छ खदर की धोती झौर कुर्ता पहना तो उसका रूप ही बदल गया । वह्‌ एक सलोना तरुण-सा प्रतीत होने लगा । भाईने के सामने खड़े होकर बडी देर तक वह्‌ भ्रपनी छटा निहारता रहा । बाहर भाकर जव वह्‌ बैठकलाने में शोभाराम के पास गया तो शोभाराम द्ये-तीन मित्रों




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