मानस प्रबोध | Manas Prabodh

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Manas Prabodh by विश्वेश्वर: - Vishveshvar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न গন প€ শসা २ মি मानस-प्रबाध । अलग ही शास्त्र निर्माण किया गया है। हम मानसप्रबोध में उन बातों को बताना नहीं चाहते | हम इसमें विद्याथियां को केवल वे बाते बताना चाहते हैं जा, अथ में ते नहीं, पर रूप में लोकभाषा से भेद रखती हैं | ऐसे भेद का कारण कभी ते कवि की खतन्‍त्रता होती है और कभी मात्रा वा वर्णो' की संख्या को पूर्ति | कहने का तात्पर्य यह है कि पद्म रूप भाषा यद्यपि अधिकांश में गद्य रूप भाषा से मिलती जुलती रहती है ता भौ उसमे कुछ . न कुछ भेद भी रहता है । द यह भेद केवल हिन्दी भाषा में ही नहीं होता बरन उसको जननी संस्कृत में भी पाया जाता है । उदाहरण के लिए कुछ प्रयोग हम दिखलाते हैं | वेद में एक ठौर लिखा है कि-- “ स दाधार प्रथ्वीं थ्रासुतेमां कस्मे देवाय हविषा विधेम ” इस ऋचा में दाधार! पद को देखिए । यह साधारण लोकभाषा के . समान नहीं है। साधारण लेकभाषा में 'दधार” ऐसा प्रयोग होता था, परन्तु वही छन्द में 'दाधार” पढ़ा गया है। फिर और भी देखिये-- “अद्र॑ कर्णेमि: झणुयास देवा: श इसमे 'कर्णंमिः पर हमारा लक्ष्य है । साधारण ल्ोकभाषा में करों: ऐसा व्यवहार दोता था। वही छल्द में क्ेमि:” कहा गया है। इस प्रकार के प्रयोगों से वेद भरे पड़े हैं। इसी हेतु संस्कृत व्याकरण के रचयिता भगवान्‌ पाणिनिजी ने अपने व्याकरण अष्टाध्यायी से एक सूत्र दी रच दिया । वह सूत हे “बहलं ढन्दसिः' 1 ` ` यह सूत्र अध्याय सात, पाद एकं और संख्या दस का है । इसका `




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