श्री जैन धर्म का विज्ञान | Shri Jain Dharm Ka Vigyan

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Shri Jain Dharm Ka Vigyan by विजयप्रेम - Vijayprem

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ हरकत नही । पू श्रो के प्रश्यात उपरेशसे परिवर्तेत और छीडा” भमाँसमक्षण । दावदा, उमेदटा, मोगर देवास भादि स्यानेकि नरेश्चोः पर सफर उपदेशं । पुरतका धुन्दर ग्रसग-पोलीस सुप्रोस्टेन्डेन्ट मुस्लोम प्‌ श्री का सुना उपदेश । तापी नदोमे पाँच माइल तक मछलियों न प्रशडनेका और झलरी नही विछवानेका हुक्म । अतिउग्र पुण्य और पाप भी तत्कालिफ फल प्रदान करते है। मुस्लीम अधिकारी थोडे ही समयमे कच्छुके हाकेम ! पाटणके फोजदार पृ श्री के परिचयमे आये । আনন रसीहलान अपने ज्ञाति भाईओपे कहते ' वीस्तमिल्ठा उल रहेमाना उम रहीम“ जिसका अल्ताहं समी जीवोत्र प्रति रहम ओर दयाल॒वाला होता है, वह अन्य जीवोको हिसा करकी मुक्ति कैसे द॑ । चारिव्य शुध्धि तो अनौक्षो ही थी । एक बार अशक्तिके कारण अवाक्‌ वने गय पै । गुहस्योनोन भावावेक्षमे गादलेका उपयोग किया । स्व्यं होते हृएुदही स्या आया, “उठा लो यहांसे अपने एक पतले आसव पर ही सोना पसंद किया | भकक्‍तोकी बहुत चहल-पहल रहनी थी । तुरन्त ही “मौन 1 अत्यधिक समय आत्मचिस्तम मं । क्यों महायोगी थेन ? नि स्पृह्‌ पनका गुण बलवत्तर था । ठाक यजदोक्कें, লি বে महििकारक मतेदासीको भी झाह्व सिद्धातके बारेमे योडी सी মুদির ने दे । सकम बने रहते । देवद्रब्यके মিসস মুলা पड़क्कार एक गणवेपधारीका और एक सस्तान्हुककषये दिया धा । मौम-फन्त गुणका प्ण दथनेपू श्री में होंते ये । दान समर्वितोंकी और वात्सल्ये मनूपम हीया। वंहेदी समः




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