श्री जैन धर्म का विज्ञान | Shri Jain Dharm Ka Vigyan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११
हरकत नही । पू श्रो के प्रश्यात उपरेशसे परिवर्तेत और छीडा”
भमाँसमक्षण । दावदा, उमेदटा, मोगर देवास भादि स्यानेकि नरेश्चोः
पर सफर उपदेशं ।
पुरतका धुन्दर ग्रसग-पोलीस सुप्रोस्टेन्डेन्ट मुस्लोम प् श्री
का सुना उपदेश । तापी नदोमे पाँच माइल तक मछलियों न
प्रशडनेका और झलरी नही विछवानेका हुक्म । अतिउग्र पुण्य
और पाप भी तत्कालिफ फल प्रदान करते है। मुस्लीम अधिकारी
थोडे ही समयमे कच्छुके हाकेम !
पाटणके फोजदार पृ श्री के परिचयमे आये । আনন
रसीहलान अपने ज्ञाति भाईओपे कहते ' वीस्तमिल्ठा उल रहेमाना
उम रहीम“ जिसका अल्ताहं समी जीवोत्र प्रति रहम ओर
दयाल॒वाला होता है, वह अन्य जीवोको हिसा करकी मुक्ति
कैसे द॑ ।
चारिव्य शुध्धि तो अनौक्षो ही थी । एक बार अशक्तिके
कारण अवाक् वने गय पै । गुहस्योनोन भावावेक्षमे गादलेका
उपयोग किया । स्व्यं होते हृएुदही स्या आया, “उठा लो
यहांसे अपने एक पतले आसव पर ही सोना पसंद किया |
भकक्तोकी बहुत चहल-पहल रहनी थी । तुरन्त ही “मौन 1
अत्यधिक समय आत्मचिस्तम मं । क्यों महायोगी थेन ?
नि स्पृह् पनका गुण बलवत्तर था । ठाक यजदोक्कें, লি বে
महििकारक मतेदासीको भी झाह्व सिद्धातके बारेमे योडी सी
মুদির ने दे । सकम बने रहते । देवद्रब्यके মিসস মুলা
पड़क्कार एक गणवेपधारीका और एक सस्तान्हुककषये दिया धा ।
मौम-फन्त गुणका प्ण दथनेपू श्री में होंते ये । दान
समर्वितोंकी और वात्सल्ये मनूपम हीया। वंहेदी समः
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