नये धान से पहले | Naye Dhan Se Pahle

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Naye Dhan Se Pahle by देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रामुख ৪ में चुप रदा । एक प्रालोचक महोदय ने वीच-वचाव करते हए कदा--“कदानी लम्बी दते हुए भी एक घुरी पर झवश्य घूमती है, इस से तो किसी को इन्कार नहीं द्वो सकता । लेखक की अपनी विशिष्ट राजी दे । यद्ट भी स्प४ है कि लेखक ने बढ़ी सचाई से वमालके प्रकाल का एक पृष्ठ हमारे सामने रख বিয়া ই। আয হুম গীত ভা चादते हैं ? बद्द भौर बात दै कि यह पृष्ठ खूब लम्बा चौड़ा है । राधा कृष्ण के सम्बन्ध में जयश्री अवश्य सोच सकती है भौर जित सांस्कृतिक पतर पर वद खड़ी दे उस के प्रतौकों से बद्द कैसे एकदम टी पा सक्ती दे १ भरत मुक्त से भी कुछ कटने का भनुरोध शुरू हुआ । मेने बताया-- “यद कहानी सन्‌ १६४४ मे लिखी ग्द थी भर किसी सांस्कृतिक नारे से इसे ख्वाह-म-ख्वाद जोड़ने की कोरिरा न की जाय । ” जिसने यद श्रापत्ति की भी उने फौरन कदा--“म मरषनौ बात वायस বহার” मैंने मपनी बात जारी रखते हुए कद्दा--“मैने जयश्री को जिस रूप में देखा उसी रूप में मैंने उस श्रस्तुत कर दिया ই । मरा हुमा बालक उत्पन्न द्वोता है नये धान से पदले-यद एक व्येग्य है क्रूर । पर साहब, इस से तो लेखक की यह उत्कट इच्छा उभरती द्वे कि काश नया युग जल्द भ्राजाय, नया धान रौग्र उमे, जिससे रत तं जयश्रियां मेर हुए बालको फो जन्म दे कर्‌ स्वय भी भ्क्राल के सुद का निवाला न बनती चली जार्थ। म यद मानता हूँ कि इस कट्दानी की सफलता-अ्सफलता का निर्णय इस गोष्टी में नहीं रिया जा सकता † इका फैसला तो पाठकों भौर भालोचकों के विस्तृत क्षेत्र में दी होगा 17 “शनिवार समाज! में वैसे हर किस्म की चीज्ञ पढ़ी जा सकती दे । चीज़ किसी किस्म की भी क्‍यों न हो, आलोचना अवश्य गरमागरम दोनी चाहिए-- यह 'शनिवार समाज' की परम्परा दै। इसके लिये में कद्दानी पढ़ने से पहले ही तैयार था । <




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