श्री वल्ल्भपुष्टिप्रकाश | Shree Vallbhapushtiprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम माम) > ०२ ॥ श्रीकृष्णाय नमः ॥ श्रीगोषीजंनवद्धमाय नमः ॥ ॥ अय त्रासिता परकी सेवा प्रकाशमें सेवाकी रीतिसों श्रीपु* || मागमे आडङुरनीका सेवाविषे केवर सेह बत्सल्य मुख्य ॥ है, जेसे माता अपने बालककी वत्तठता विचारत रहे । ओर ॥ पतित्रता श्री अपने पतिका पत्तन्नता चाईवोी करे । ओर (यथा | ॥ देड्ढे तया देवे ) इत्यादि शास्त्रीय विधि पूर्वक जैसे उष्णकाहमें ॥ अपनेको गरमी ठगेंहे ओर शीतकाछमें अपनेको सरदी छगेहे | और समयपर भूख प्यास ठगेहे । तामें जेसे आपन सर्व प्रका- | || रसां रक्षा करें हैं। तेसे समयानुसार भगवत्‌ स्वरूपमेंह विचा- | || रत रहे सो ही सेवाहे । ओर केवछ जहा माहात्म्यहे सो पूजा | कृ दी नाये । हीयां माहात्म्यकी विशेषता नहीं हे! दीया तो | | के वड प्रीतकी पहँचान हे । जेसे गोविन्द्स्वामीने गायो है कि, || | शीतम प्रीत इते पेये” जाप्रकार आरीव्जभक्तननें श्रीठाकुर- | || जक प्रम विचारके सेवा करी है ताही प्रकार ओऔजजभक्त- | | नकी यापु यह सेवा है। नैसे या पदमें गायो हे के सेवारीत ॥ ग्रीत त्रजजनकाी जनहित जग प्रगठाई । दास शरण हारवाग- ॥ धीशकी चरणरेणु निधि पाई” ॥ और सूरदासजीने गायो हे । | || “भन साति भाव भाषिक देव । कोटिसाघन करो कोड तो | || न माने सेव ॥ १॥ धूम्र कैतु कमार मग्यो कोन मारग नात । || | पुरुषते धिय भाव उपन्यो অন उख्टी रीत ॥ २॥ वक्षन भूषन्‌ |




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