उदात्त रस - सिद्धान्त और नयी कविता | Udatta Ras-Siddhant Aur Nayi Kavita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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9० उदास रस-सिद्धात और नयी कविता ध्यान रहने से काव्य-मुल्य (कल्पनात्मक अनुभूति) को क्षति पहुचेगी । মী লা कथन है कि “काव्य अपना साध्य आप है-से यह समझता भूल हे कि काव्य और मानव-हित परस्पर विरोधी' हे। काव्य भी मानव-हित का ही एक रूप है। पर इसका मुल्याकन इसके अतरग मूल्य कौ छोडकर मानव-हित को नही बनाना चाहिए। वस्तुत ब्रं डले यही चाहते थे कि किसी कविता का भूल्याक्न नीति, धमं, दशन आदि की बाह्य बातो के आधार पर नही होना चाहिए । वह उसकी कसौटी यही वताते ই कि क्या काव्य हमारी कल्पना को परितोष देता है ? नीति, धर्म, ज्ञान, सास्कृतिकआदर्श आदि अपने में कुछ नही । काव्य की दृष्टि से इनका महत्त्व तभी सिद्ध होता है, जब वे कवि की कल्पना मे अन्तर्भूत होकर आते है । ब्रंडले के विचार से जो तथ्य निकलते है, उनमे सबसे महत्त्वपर्ण यही है कि काव्य-मुल्याकन किसी नीति या आदर्श के आधार पर नही किया जा सकता। नीति या धर्म को वह कल्पनात्मक अनुभूति के रूप मे ही काव्य मे ग्राह्म मानते है । पर वह नीति या जीवन-तत्त्वों और काव्य का सम्बन्ध प्रच्छन्‍न ((170७870ए10) कहकर एक तरह नीति या जीवन-मूल्यो को वैकल्पिक बना देते हे । काव्य में उच्च जीवन- मूल्यों के विधान से उसकी कल्पनात्मक अनुभूति अधिक उदात्त और अधिक मार्भिक हो सकती है, इस तथ्य को वह नही पकड सके । काव्य की परख आतरिक मूल्यो से ही होनी चाहिए --यह तो ठीक, पर वे आतरिक मूल्य अनुभूति की कौन-सी सर्वश्रेष्ठ दशा हो सकते हे, यह भी ब्रंडले नही बता सके । उदात्त भाव-रस ही यह कसौटी बन सकती है--थह रहस्य ब्रैंडले नहीं खोल सके । वह नैतिक मूल्यो को नितात बाहरी मान बंठे । इस सम्बन्ध में पेटर का दृष्टिकोण कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण लगता है + उन्होंने सौन्दर्य की आधारशिला पर नैतिक मूल्यो की प्रतिष्ठा से ही कला की महानता स्वीकार की है। सुन्दर कला से महान्‌ कला का अतर स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि सुन्दर रूप-विधान से कला अच्छी कला तो बन सकती है, पर यह आवद्यके नही किं वह महान भी हौ । “अच्छी कला ओर महान्‌ कला मे अतर सम्प्रति रूप-विधान पर नही, वस्तु पर निभेर करता है । कम-से-कम साहित्य-क्षे्र मे तो यह बात सभी स्थितियो मे सत्य है । कला की महानता वण्य॑-वस्तु की महानता पर निभैर करती है । जिन अवस्थाओ मे मेते अच्छी कला की स्थिति मानी है, उनमे यदि कलां अव- स्थित हय मौर फिर यदि उसे मानवता की कल्याण-कामना मे, पीडित-दमितं के परित्राण मे अथवा हमारी सहानुभूति के विस्तार मे लगाया जाय, तो वह्‌ कला महान: होगी, अथवा यदि कला हमारे विषय में तथा हमारे और विश्व के सम्बन्धों के विषय में ऐसे नये या पुराने सत्य का उद्घाठन करे, जिससे हमारे ऐहिक जीवन को शक्ति और उत्नयन मिले, अथवा दाँते की तरह वह ईश्वर की महत्ता को प्रकाशित करे तो वह कला महान होगी ।” (पेटर के विचारो का हिन्दी-अनुवाद । पाइचात्य काव्यशास्त्र की परम्परा, पृ० २३१) स्पष्ट है कि पेटर जीवनं के नैतिक मूल्यो की महत्ता स्वीकार करते है । (कल




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