रंगभूमि | Rangbhoomi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० रंगभूमि नित्यप्रति ल्ञाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बठता, और राह- गीरों की जान की ख़ेर मनाता | 'दाता, भगवान तुम्हारा कल्यान करें--'” यहदी उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुद्दराता था! कदाचित्‌ वह इसे लोगों कौ दया-प्रेरणा का मत्र समस्ता था। पेदल चलनेवाललों को वह श्रपनी জবান पर बैठे-बैठे दुआएं देता था । लेकिन जब कोई दका था निकलता, तो वह उसके पीछे दोढ़ने कगता, और बन्धियों के साथ तो उसके परों में पर लग जाते थे । कितु हवागाड्यों को वह अपनी छ्ुभेच्छाझों से परे समझता था । अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी का बातें नहीं सुनतीं । प्रातःकाल से संध्या तक उसका समय श्युभ कामनाशों ही में कर्ता था | यहाँ तक कि माघ-पूस को बदलती ओर वायु तथा जेउ-बैसाख की लू-ल्पट में भी उसे नाग़ा न होता था । कात्तिक का महोना था । वायु में सुखद शीतल्नता था गईं थी । संध्या दो चुकी थी | सूरदास अपनी जगह पर मूतिवत्‌ बैठा हुझा किसी इक्के या बग्घो के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनो ओर पेड़ लगे हुए थे | गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढील दीं । उनके पछुाई बैल टाट के टुकढ़ों पर জর্জ और भूसा खाने ऊगे । गाडुवागे नेमी उपन्ने जका दिए | कोई चादर पर झाटा गूं घता था, कोई गोज्न गोल बारिर्य षनाक्रर उपलों पर सेंकता था | किसो को बरतनों की ज़रूरत न थी । सालन के लिये घुइएँ का भुरता काफ़ी था । और, इस दरिद्वता पर भी उन्हें कुछ चिता नहीं थी, बैठे बाठियाँ सकते शोर गाते थे । बैलों के गले में बँधी हुईं घंटियाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाढ़ीवान ने सूरदास से पूछा--“'क्यों भगत, ब्याह करोगे ?”! सूरदास ने गरदन हिलाकर कष्टा-- “कहीं है दौज 2? गनेस -- हाँ, है क्‍यों नहीं । एक गाँव में एक सुरिया है, तुम्हार




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