जैन विद्या के आयाम | Aspects Of Jainology

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Aspects Of Jainology  by सागरमल जैन - Sagarmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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অহা निलिप्त जैनविद्या के निष्काम सेवक बाबू हरजसराय जौ जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व $ इसी भावना का प्रदर्शन उन्होंने पुरुषों के लिए भी किया है। वे लिखते है कि “मनुष्यो को चाहिए कि अपनी धममंपत्नियों पर विश्वास, श्रद्धा, प्रेम और भक्ति बनाने रखें | उनको मान-मर्यादा, उनके सुख और आराम तथा उनको हादिक अभिलाषाओं की यथाशक्ति पूर्ति का निरन्तर ध्यान रखें। उनसे ऐसा प्रेममय सम्पर्क करें, जेसा उन्होंने कमी किसी उपन्यास, नाटक था काव्य में पढ़ा हो और उसकी इच्छा उनके मन में उत्पन्न हुई हो ।” उपर्युक्त उद्धरणों से यह प्रतिभाषित होता है कि उनमें व्यक्ति और उसके पारिवारिक जीवन को सुखद और समृद्ध केसे बनाया जाय, इस सम्बन्ध में वे सजग रहे। उन्होंने अपने परिवार में इन गुणो को विकसित करने का पुरा प्रयत्न किया । इसो का परिणाम है कि लाज उनके संयुक्त परिवार में जिसकी सदस्य संख्या २५० के आसपास है, पूर्ण सामंजस्थ और चरिव-निष्ठा है । उनके परिवार ने न केवल आशिक क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की, अपितु समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान भी अजित किया । उनके भतोजे श्रो शादोलाल जो और उनके पुत्र श्री नृपराज जी की सामाजिक प्रतिष्ठा से सभो परिचित हैं । पारिवारिक दायित्वों के प्रति ये रूढ़िवादी न थे। जहाँ एक ओर वे संयुक्त परिवार की गरिमा बताये रखने में प्रत्येक सदस्य का सहयोग-अपेक्षित मानते थे, वहीं उनका विचार था कि परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मनःस्थिति के अनुसार स्वतन्त्र कायं सम्पादन की भी पूरी छूट मिलनी चाहिए। इसका एक बड़ा साफ उदाहरण उन्हीं के जीवन से मिल जाता है। स्नातक बनने के उपरान्त जब वे घर आये, तो कई बर्षों तक अपने पूृ्व॑जों द्वारा निर्मित मकान में ही परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहे, लेकिन धीरे-धीरे परिवार बड़ा होने पर उन्हें वहु घर छोटा लगने छगा। अतः उन्होंने पिताजी से इस सम्बन्ध में सलाह ली, छेकिन उनके चाचाजी शायद ऐसा नहीं चाहते थे। अतः लालाजी चाचाजी की आज्ञा की भो अवमानना नहीं करना चाहते थे। आगे चलकर उनके संयुक्त परिवार में सदस्य संख्या अधिक हो गयी थी, जिसके कारण एक ही घर में रहने पर सबकी कार्यक्षमता पर भी असर पड़ता था| इन सब तथ्यों की तरफ ध्यान आक्ृष्ट कराकर पिताजी से उन्होंने अलग मकान लेने की आज्ञा प्राप्त कर ली। लालाजी के इस कृत्य से एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है कि वे विचारों के मामले में बिल्कुल साफ एवं खुले हुए थे, छेकित पारिवारिक सदस्यों की मर्यादा का पालन करना भी जानते थे | इतना सब कुछ होते हुए भी स्नातक बनने के उपरान्त उन्होंने अपने पेतृक व्यवसाय को ही अपनाना ज्यादा उचित समझा। जिस प्रकार शिक्षा एवं समाज-सुधार कार्यक्रमों के कारण उन्होंने समाज में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया, उसी प्रकार व्यवसाय के क्षेत्र में भो उनके समकालीन व्यवसायी उनकी इस प्रतिभा का लोहा मानते थे। यद्यपि व्यवसाय के सम्बन्ध में उनके विचार बढ़े ही स्पष्ट थे | वे कहा करते थे कि “हम परम्परागत व्यवसायो की अपेक्षा उद्योगों के माध्यम से सकल राष्ट्रीय उत्पादन एबं पूंजी विनियोग में राष्ट्र को सहयोग दे सकते हैं और माधिक क्षेत्र में व्याप्त असमानता ( अन्य देशों की तुलना में ) को शीघ्र ही कम कर सकने में सफल हो सकते है ।”” अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने उद्योगों को प्राथमिकता दी | यदि हम कहें कि फरीदा- बाद को औद्योगिक नगरी के हूप में विकसित करनेवाले जो कुछ धोड़े से उद्योगपति हैं, उनमें लालाजी एनं उनके परिवार का योगदान अग्रगण्य ही भाना जयिगा, तो कोई अत्युक्ति न होगी । उनके संयुक्त




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