श्री जीवंधर - नाटक | Shree Jeevandhar Natak

Shree Jeevandhar Natak by श्रीलाल जैन - Srilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमांक १९ ০০ दीख रही है । क्या प्रिये | तू छधर नहीं देखती, देख तेरे सामने ये कमलपुष्प तेरे खिले हुये मुखकमलको देख केसा सुरमा गया है मानों, रसे छाजाने ही दवा लिया है | प्रद्दा! तेश यदद छुन्दर रूप इस खिल्ले जोघनका भूष है जो श्रपनी चरा आखोंम चकार्योघ येद्‌ कर रहा है। (राजा रानीको देख ইজ हित द्वोता है ) विजया-- शर्माकर ) हे मनमोद्दन ! क्यों मुझे व्यर्थ छेडले दो ओग यों-ही सूठी तुगवन्दी जोडते हो। अच्छा षताध्ये यह' यन्त्र कैसा है ज्ञिलका आपने तथार कराया है | कया यह मवारीके भी काममें लाया जा सकता है ? सत्यन्धर--प्रिये | ये मथूरयन्त्र-आकाशी विमान तेरे दिन वहलनि ओर अनेक रभ्य कीडास्यछोँश्ी वहार क्लेनेके वाएते बनवाया है। इस पर बैठ देश देशान्तरोंकी शर कर सह्ते है। कया तुम्हारी इसपर बेठनेक्री इच्छा दे ? यदि दे तो बेठो अभी! सका गुण मालूम हाजायगा। विजया--हां, बेठनेकी तो दृच्छा दे मगर भय लगता है पोर आकाशात वडनेफी सुन हृदय धडकता दे । क्षेकिन तवि- यत चाहती है कि इसपर बढ आकाशकी शोभा देखे । सत्यन्धर -- प्रिये ! यद्ष सवारी भयोत्यादक नहें है। डरो मत, यद इच्डाक मुताविक चलाया और हराया जा सकता दै} आर जहां चाहा उतारा भी जा सकता दे। (राजा रानोकोा लेक्षर उस मथूरयन्वते बेट जाता है ओर आकाशात उसे नेनातः ह फिर पीछे उतार लाता है।




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