श्री जीवंधर - नाटक | Shree Jeevandhar Natak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, नाटक/ Drama
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
130
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथमांक १९
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दीख रही है । क्या प्रिये | तू छधर नहीं देखती, देख तेरे सामने
ये कमलपुष्प तेरे खिले हुये मुखकमलको देख केसा सुरमा
गया है मानों, रसे छाजाने ही दवा लिया है | प्रद्दा! तेश यदद
छुन्दर रूप इस खिल्ले जोघनका भूष है जो श्रपनी चरा
आखोंम चकार्योघ येद् कर रहा है। (राजा रानीको देख ইজ
हित द्वोता है )
विजया-- शर्माकर ) हे मनमोद्दन ! क्यों मुझे व्यर्थ छेडले
दो ओग यों-ही सूठी तुगवन्दी जोडते हो। अच्छा षताध्ये यह'
यन्त्र कैसा है ज्ञिलका आपने तथार कराया है | कया यह
मवारीके भी काममें लाया जा सकता है ?
सत्यन्धर--प्रिये | ये मथूरयन्त्र-आकाशी विमान तेरे दिन
वहलनि ओर अनेक रभ्य कीडास्यछोँश्ी वहार क्लेनेके वाएते
बनवाया है। इस पर बैठ देश देशान्तरोंकी शर कर सह्ते है।
कया तुम्हारी इसपर बेठनेक्री इच्छा दे ? यदि दे तो बेठो अभी!
सका गुण मालूम हाजायगा।
विजया--हां, बेठनेकी तो दृच्छा दे मगर भय लगता है
पोर आकाशात वडनेफी सुन हृदय धडकता दे । क्षेकिन तवि-
यत चाहती है कि इसपर बढ आकाशकी शोभा देखे ।
सत्यन्धर -- प्रिये ! यद्ष सवारी भयोत्यादक नहें है। डरो मत,
यद इच्डाक मुताविक चलाया और हराया जा सकता दै}
आर जहां चाहा उतारा भी जा सकता दे। (राजा रानोकोा
लेक्षर उस मथूरयन्वते बेट जाता है ओर आकाशात उसे नेनातः
ह फिर पीछे उतार लाता है।
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