आराधना कथाकोष दूसरा भाग | Aaradhna Kathakosh Dusra Bhaag
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
338
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दूसरा भाग १५
[1 कक १३९७०
সিং
वहीं पर भत्यन्त सरल स्वभाव चाले प्रकाण्ड विद्वान्ू, सुच-
रित्र ्षीरकदम्बः नामक एक जेन उपाध्याय रहते थे। उनके स्वति-
मतौ नामक एक स्त्री त्था पर्वत नामक एकर पुत्र था । एक समय
एक विदेशी ब्राह्मण 'नारद' इनके पास विद्याध्ययन करने मया ।
वह् तानी, निरभिमानी तथा सच्चा जिनभक्त था उसके साथर्
राजकुमार बसु तथा उपाध्याय पुत्र पर्वत भी पढ़ने छगा | बसु ओर
नारदको बुद्धि अत्यन्त तोत्र थी पर पवतकरी बुद्धि पापाचरणके
कारण मन्दं पड गयी थी । भस्तु राजकुमार मौर नारद तो भल्प-
काल ही में सर्व शास्त्र पारंगत हो गये पर पण्डितका पुत्र पर्वत
मूर्ख दो रद्द गया । अपने पुत्रकी यह दशा देखकर एक दिन उपा-
ध्यायानी अपने पतिसे झ्िश्चक कर बोली “मालूम पड़ता है कि
आप व'हरके लड़कोंको तो अच्छी तरद् पढ़ाते हैं.। पर अपने पुत्र
पर अपना ध्यान हो नहीं रहता इतने दिन पढ़ा पर अभी उसे खाक
पत्थर भी न आया” इस पर क्षार कदुम्ब्ने कहा - इसमे मेरा दोप
नहीं ह । मे तो सवा पर समभाव रखकर पाता हं पर मे दुर्भा-
ग्यक्रो सौभाग्ये केते परिणत कर सकता । पर्वत निरा मूखं पापी
तथा दुराचासे है । मेरे सब उपदेश उसके हृदय पर उसो प्रकार
विफल होते ই जसे पत्थर पर चोले तीर यदि विदवासनष्ोतो
कहो मे तुझे प्रत्यक्ष दिखा दृ' । यह कह उन्होंने तोनों शिष्योंको
एंक २ पैसा देकर कहा कि तुम छोग बाजार जाकर अपने बुद्धिबल
से इसके द्वारा चने खरीदकर खा छो। ओर फिर पेसा मुझे वापिस
कर दो । पैसा लेकर तीनों निकले पव॑तने तो पैसेकां चना मोल
लेकर खा लिया और खाली हाथ लोट आया। पर वसु और नारदं
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