मनुष्य का धर्म | Manushya Ka Dharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहिला अध्याय ३ है जिसमें मेण और मेरे: देशवासियों का प्रायः मतभेद्‌ है और इसलिए भी कि यद्दी वह प्रश्न है जो प्क सरिष्णु, श्रमह्ील मनुष्य के दुःखित अन्तःकरण म सवाभाविक्र रीति पर उत्पन्न होता है | “हम लोग श्चमजीवी हैं, इसलिए दीन ओर दुखी रै! हमारे सामने सांसारिक सफलता, स्वाधीनता और खुख प्राप्ति के उपायों का चणेन करो । तुम हम यह वततलाओ कि हमारे भाग्य में सदा के लिए कष्ट ही कए्ट है, या कभी हमारे दिन फिरेंगे । धर्म का उपदेश धनवानों को करो अर्थात्‌ उन छोगों को जो ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हैं | जो हमें मनुष्य नहीं समझते, किन्तु अपने खुख का साधन समझते हैँ और सौभाग्य और ` उन्नति के साधन का, जो न्यायाचुतार मनुष्य मात्र के लिए हैं, केवल अपना स्वत्व समझते हैं। हमारे सामने हमारे अधिकारों का वर्णन करो और उनकी प्राप्ति के उपाय हमें बतछाओ। हमें यह शिक्षा दो कि हम क्या कर खकते हैं। पहिले हम अपनी जातीय और सामाजिक सत्ता सङ्गटित कर रं, तव हमे तुम धर्म की शिक्षा करना ।” प्राय; अमज्ञीवी छोग ऐसा कहते है, और थे ऐसी सभाओं * अं ज्ञाते है और देली बातां का आन्दोढन्‌ करते हैं, ज्ञो उनकी इस इच्छा ओर उक्ति के अनुकु दै । भिन्त वै इस बातत को भूक जाते हैं कि जिस आन्दोलन में वे अभी तेक लगे हुए दै, वह प्रायः बही है, जो ५० चर्ष से बराबर हो रहा है, परन्तु उससे




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