प्रघुम्न - चरित्र | Pradyumn Charitra

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Pradyumn Charitra by दयाचंद्र -Dayachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११ ) रही है। रूमणी ने लज्जा फो सोच कर के नदन किया, कि भाणुनाय! मेरी एकप्राथना ह भर वह यह कि : संग्राम भूमि में आप कृपा कर के मेरे पिता तथा श्राता को जीवित बचा दीनिए, नही शे ससार मे एमे लोक निदा का दुख सहना पगा । कृष्ण जी मुस्कराकर बोले, है कास्ते, तुम चिता मतकरो, भं तरं विवास दिखाता ईं तुम्हरे परति तथा प्रादा संग्राममें जीवित छोड़ दूंगा। यह उत्तर : प्रकर रुक्मणी को जड़ी प्रसन्नता हुई ओर बोडी हे नाथ ! आप की इस संग्राम भूपिय जय हो... इतने में दोनों ओर से घोर संग्राम होने छगा। इधर तो इतनी बड़ी सेना और इतने सुभट ओर उपर केवल ये दोनो मारं थ, पतु थे दोनो रथ से उतर कर इतनी वीरता स ढड़े कि इन्हों ने शु की सारी सेना को तितः बितर कर दी । इज़ारों पढ़ काट कर पथ्वी पर गिरा दिए, छास्ों को जहां के तहां मुला दिए। शिशुपाल को यमलोक पहुँचा दिया और रूप्प- कुमार को नागफास वाण्‌ दारा नख से शिख तक रस्सी के समान जकड़ कर वांध लिया । इस प्रकार युद्ध कर के, तथा मदोन्पर श्थुका नाद करके ये दोनो भाई समश फे पाह श्राए । सशी ने अति नम्रता से भायना की कि हे नाथ ১৩ ৯১০২, कृपा करके मेरे भाई रूप्पकुमार को नागफास बाण से छोड़




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