आध्यात्मिक ज्योति (2000) Ac 6906 | Aadhyatmik Jyoti (2000) Ac 6906

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Aadhyatmik Jyoti (2000) Ac 6906 by धर्मदिवाकर सुमेरूचन्द्र दिवाकर - Dharmdivakar Soomeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरी जगह अपना ग्रभुत्व जमाने कितने व्यक्ति, जातियों आदि का पदार्पण नहीं हुआ और अब उनका नाम भी ज्ञात नहीं है, इतिहास के पृष्ठों में जिन देशों की युंततन युग में वैभवपूर्ण स्थिति बताई जाती है, बहाँ विनाश तथा शूत्यतां का अखण्ड साम्राज्य है। ' महाकवि जिनसेन ने महापुराण में बताया है कि चक्रवर्ती भरतेश्वर विविध देशों पर विजय प्राप्ति के उपरान्त वृषभाचल नामक एक सुन्दर पर्बत के समीप पहुँचे। उस समय तक भरतराज अपने को विश्व में अप्रतिम पृथ्वीपति सोचते थे; किन्तु उस पर्वत के पास पहुँचने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि असंख्य शासक इस पृथ्वी के स्वामी बने थे और वे सब चले गए। उस पर्वत पर परम्परा के अनुसार प्रतापी नरेश चक्रवर्ती का नाम उत्कीर्ण रहता है, उस क्रम के अनुसार पर्वत पर अपने नाम की प्रशस्ति अंकित करने को भरतेश्वर तैयार हुए। महाकवि कहते हैं- “चक्रवर्ती भरत ने काकिणी रत्न लेकर ज्योंही वहाँ लिखने की इच्छा की, त्योंही उन्होंने बहाँ हजारों चक्रवर्ती राजाओं के नाम अंकित देखे। असंख्यात करोड़ कल्पों में जो चक्रवर्ती हुए थे, उन सबके नामों से भरे हुए उस वृषभाचल को देखकर भरत को बहुत ही विस्मय हुआ | तदनन्तर जिसका गर्ब कुछ दूर हुआ है ऐसे चक्रवर्ती ने आश्चर्ययुक्त होकर इस भरतक्षेत्र की भूमि को अनन्य-शासन- अन्य के शासन रहित नहीं माना ।' उस समय चक्रवर्ती भरतेश्वर के अन्तःकरण मे यह बात अंकित हुई कि विश्व के मध्य उसकी असाधारण स्थिति नहीं है । जब तक मोह का नशा नहीं उतरता, तब तक मनुष्य अद्भुत कल्पनाजाल में स्वयं को कैदी बनाया करता है। मोह पिशाच के द्राए छला गया जीव प्रभुता पाकर स्वयं का पतन कलते हुए दूसरों की दुर्गति का भी कारण बनता है । उदाहरणार्थं वाममार्गिरयो का प्रश्रय पाकर धर्म का कितना विकृत रूप बनाया गया कि उसका विचार करते ही सचे धर्मवालो के हृदय पर वञ्नपात सा होता है । इस वाममार्गं के मुख्य केन्द्र विक्रमशिला काश्मीर तथा बंगाल थे | श्री के. एम. पनिक्कर ने लिखा है कि वाममार्ग के केन्द्रस्थलों की बड़ी दयनीय स्थिति १. काकिणी रत्नमादाय यदा लिलिखिषत्ययम्‌। तदा राजसहस्राणां नामान्य्रैक्षताधिरार्‌ ॥१४॥ असंख्यकल्पकोटीषु येऽतिक्रान्ता धराभुखः। तेषां नामभिराकीर्णं तं पश्यन्‌ विसिष्पये ।१४२॥ ततः किंचित्‌ स्खलद्गवो विलक्षीभूय चक्रिराद्‌। अनन्यशासनामेनां स मेने भरतावनीम्‌ ॥१४३॥ पर्व ३२ तेरह




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