अनेकान्त ईयर ९ | Anekant Year 9
लेखक :
अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya,
आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar',
दरबारीलाल कोठिया - Darbarilal Kothiya
आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar',
दरबारीलाल कोठिया - Darbarilal Kothiya
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
548
श्रेणी :
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अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya
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आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar'
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
दरबारीलाल कोठिया - Darbarilal Kothiya
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१ = (= ১৬২ (ब ®
जन कलिना अर मरा (क्कार-फन्ः
সপ:
आजकल जैन-जीवनका दिनपर दिन हास होता
जा रहा है, जेनत्व प्राय: देखनेको नहीं मिलता--कहीं
कहीं और कभी कभी किसी अधेरे कोनेमें जुगनूके
प्रकाशकी तरह उसकी कुः मलक सी दीख पडतो है ।
जैनजीवन श्रौर अजैनजीवनमे कोई स्पष्ट अन्तर नजर
ही आता । जिन राग-द्रेप, कामक्रोध, छल-कपट
भूट-फरेव, धोग्वा-जालसाजी, चोरी-सीनाजोरी,
अतितृष्णा, विलासता नुमाइशीभाव और विषय तथा
परिग्रहलोलुपता आदि दोषांसे अजैन पीडित हैं उन्हीं
से जैन भी सताये जा रहे हैं। धमके नामपर किये
जानवाले क्रियाकाण्डांमें कोई प्राण मालूम नहीं होता
अधिकाशमें ज़ञाब्तापूरोी, लोकदिखावा अथवा दम्भका
ही सवत्र साम्राज्य जान पड़ता है। मूलमें विवेकके
न रदनेसे धमकी सारी इमारत डांवाडोल हो रही है ।
जब धार्मिक ही न रहें तब धर्म किसके आधारपर रह
सकता है ? स्वामी समन्तभद्रने कहा भी है कि--
न ঘন! धार्पिकेबिना' | अतः धर्मेकी स्थिरता और
उसके लॉकहिल-जंस शुभ परिणामोंके लिये सच्चे
धार्मिकांकी उत्पत्ति चौर स्थितिकी श्रोर सविशेषरूपसे
ध्यान दिया ही जाना चाहिये, इसमें किसीको भी
विवादक लिये स्थान नहीं है। परन्तु आज दशा
उल्टी है--इस ओर प्राय: किसीकाभी ध्यान नहीं है ।
प्रद्युत इसके देशम जैसी फुछ घटनाएं घट रही हैं
ओर उसका वातावरण जैसा फुछ छुब्ध और दूषित
हो रहा है उससे धमके प्रति लोगोंकी अश्रद्धा बढ़ती
जा रही है, कितने ही धार्मिक संल््कारोंसे शून्य जन-
मानस उसकी बगावतपर तुले हुए हैं और बहुतांकी
स्वार्थपू्ण भावनाएं एवं अविवेकपूर्ण स्वच्छन्द-
प्रवृत्तियां उसे तहस-नहस करनेके लिये उतारू हैं; और
इस तरह वे अपने तथा उस देशके परतन एवं विनाश
का माग आप ही साफ कर रहे हैं । यह सब देखकर
भविष्यकी भय ङ्रताका विचार करते हृए शरीरपर
रोंगटे खड़े होते हैं और समममें नहीं आता
कि तब धमे ओर धर्मायतनोंका क्या बनेगा। और
उनके अभावमे मानव-जीवन कहां तक मानवजीवन
रह सकेगा !!
दूषित शिक्षा-प्रणालीके शिकार बने हुए संस्कार-
विद्दीन जैनयुवक की प्रवृत्तियां भी आपत्तिके योग्य
हो चली हैं, वे भो प्रबादमे बहने लगे हैं, घर्म और
धमोयतनांपरस उनको श्रद्धा उठती जातोी है, वे अपने
लिये उनकी जरूरत ही नहीं सममते, आदशेकी धोथी
बातों और थोथे क्रियाकाण्डोंसे वे ऊब चुके हैं, उनके
सामने देशकालानुसार जैन-जीबनका फोई जीवित
आदश नहीं है, और इसलिये वे इधर उधर भटऊते
हुएंजिधर भी कुछ आकपेण पाते हैं उधरके ही हो
गहते हैं। जतथम और, समाजके भविष्यकी दृष्टिसे
एसे नवयुवकाका स्थितिकरण बहुत ही आवश्यक दे
आर वह तभी हो सकत। है जच उनके सामने हरसमय
जैन-जीवनका जीवित उदाहरण रदे ।
इसके लिये एक एसी जैनकालोनी--जैनबस्तीके
बसानकी बड़ी जरूरत है जहां जेन जीवनके जीते
जागते उदादरण मौजूद दों--चाह्दे वे ग़हस्थ अथवा
साधु किसी भी बर्गके प्राणियोंके क्यों न हों; जहां पर
सवत्र मूर्तिमान जेनजीवन नजर श्राए शरीर उससे
देखने बालोको जैनजीवनकी सजीव प्रेरणा भिले;
जहांका वातावरण शुद्ध-शांत-प्रसन्न और जेन जीवनके
अनुकूल अथवा उसमें सब प्रकारके सहायक हो; जहां
प्राय: एसे ही सज्जनोका अधिवास हो जो अपने
जीवनको जैनजीवनके रूपभ ढालनके लिये उत्सुक हों;
जदां पर अधिवासियोंकी प्राय: सभी जरूरतोंकों पूरा
करनेका समुचित प्रबन्ध द्वो ओर जीवनको ऊंचा
उठानके यथासाध्य सभी साधन जुटाये गये दा; जद्दां
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