हिन्दी गध्य का विकाश | Hindi Gadh Ka Vikash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी-गद्य का प्रारम्भ भ्रौर परिमाजंन संसार की प्राचीनतम भाषाश्रों का साहित्य पद्य में है इससे यह अनु- मान लगाना या प्रमाणित करने का प्रयत्न करना कि उस काल में जन- साधारण में आम बोल-चाल की भाषा भी पद्यमय ही रही होगी युक्ति- संगत नहीं । पुस्तक-प्रकाशन की व्यवस्था न होने के कारण उस काल के विद्वाद्‌ मुल्यवान श्रेष्ठ श्रनुभूतियों श्र मानवोपयोगी विचारों को पद्थ-बद्ध करके भ्रपने झनुयाइयों को कण्ठस्थ करा देते थे । मानव-सम्यता के प्रारम्भिक विकास का साहित्य श्रघिकांश रूप में इसी प्रकार सुरक्षित रखा गया । परन्तु इस काल में भी आम बोल-चाल की भाषा का माध्यम पद्य न होकर गद्य ही था । गद्य का प्रयोग साहित्य-निर्माण-कार्ये के लिए इस कारण नहीं हो सकता था कि उसे सुरक्षित रखने ओर प्रसार करने का कोई साधन उप- लब्घ नहीं था । साहित्य-निर्माण-का्ये के विकास का यह साधन मुद्रणा- लय था । मुद्रशालय की शक्ति श्रौर सहयोग के श्रभाव की मान्यता को हुज़ारीप्रसाद जी ने भी अपने इतिहास में स्वीकार किया है । द्विवेदी जी ने तो मुद्रयालय को ही साहित्य को प्रजातांत्रिक रूप देने वाला माना है । मुद्रसालय ने ही लेखक श्रौर पाठक के बीच की सामंतवादी दीवार को गिराकर माग॑ साफ कर दिया । वस्तुस्थिति की वास्तविकता पर दृष्टि डालने से द्विवेदी जी के मत से असहमत होने की भी कोई बात दृष्टिगत नहीं होती । मुद्रणालय के भ्राविष्कार ने साहित्य-प्रसार की कण्ठस्थ करने वाली प्रणाली को श्रपने एक ही भटकें से छिनन-भिन्‍त कर दिया । विविध विषयों पर साहित्य का लेखन झौर प्रकाशन प्रारम्भ हो गया । अनेकों पत्र-पत्रि-




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