राष्ट्र - धर्म | Rashtra - Dharm

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Rashtra - Dharm by सत्यदेव विद्यालंकार - Satyadev Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ অল स्या हे ? -- गरीयको यदा सन्तोप मानना चाहिये कि वह पाप-पुरयके इष भ॑भरसे द्रसीलिये আলি दै कि वह धर्मं जीवी लोगोकी नियत दक्तिणा घुकानेकी शक्तिसे वेचित दै 1“*-“ धर्मने मयुप्यकी दिको संकुचित, इृत्तिको अनुदार, स्वभावको असहिप्णु, दिमागको सनकी और श्चाचार-विच्ारको पतित धनाकर भनुष्य-समाजके जीवनमें एठ, दुराग्रह, विरोध, ईप्या ओर पकी भावनाको मुप्यके देदमें रुधिरकी तरह पेदा कर दिया है ।” ला 15 704४ 06107901010 00090539100 2010. 00110655100. 0£ 01101700030 35 ০101) फला कथि मामाह एषण कण रला 001] 270 लप्र पतै पाण ০075100160 प्रीलााऽलर्द6 पलार ्रएणाथा, . 4১000, 10650, एणॉडणी।ए, 8००0 20919005 7001005000৮ ভাতে 206 क्लि पाल 07 200 01000119505, সপ 30 70905 --/इ समयके समान उस समय सी धर्म सुख्यतः उन छोगोंके ज्यवसाय एवं विश्वासका विषय था, जो कि 'आलली एवं अत्याचारी थे और अपनेको बहुत अधिक मद्दत्व देते थे। योग्यता, ईमानदारी, नेक- नीयती और सच्चरित्रता आदि सदूगुण पधिकांशर्मं नास्तिक लोगोंमें ही पाये जाते थे ।” ७)




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