राष्ट्र धर्म | Rashtra - Dharm

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Rashtra - Dharm by सत्यदेव विद्यालंकार - Satyadev Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विष्रय-प्रवेश ११ जिस रुढ़ि, परस्परा ओर -मर्यादाको उन्होंने घर्म मान लिया है उस्तका वे त्याग नहीं कर सकते | धर्मके लिये देशकों छाड़ा जा सफता है-किन्तु देशके लिये धर्मकी एक मात्रा भी कम नदीं की ज्ञासकतो | पेसी कितनी हो भत्यक्ष घटनाओंसे प्रेरित होकर 'राष्ट्र-ध्म' के सम्बन्धर्में कुछ लिखनेका विचार-कई 'घार पैदा हुआ ! इस बार जनवरीके शुरुमें दी एमर्जेसी -आई्डिनेंसमें अलीपुर सेण्ट्छ जेलमें लाये जाने पर इस पिवारको पूरा करनेका निश्चय किया | मिन्नोंकी पारस्परिक चर्चासेचह विचार और भी अधिकः/हुढ हो गया। इस निबन्धका खाका भी खींच लिया गया था और सोचा गया था कि इस बारके जेल-जीवनमे पहिला काम यह ही किया जायगा। पर, खाका खींचनेके धाद ही कुमारी श्रेसः एलिसनकी लिखी हु टकी टुडे! नामकी 'पुस्तक हाथ रूगी। इस विषयफी पूर्ण-लमर्थेक वह ऐसी पुस्तक थी कि उसके सवाद करनेके लोभका संचरण करना फठिन हो गया.। उसको पूरा किया। उसके बाद दूसरे कामों समय निकर गथा! दो मासको आड्िनेंस क्री ओर छः मासकी राजद्रोही सज्ञाकी अवधि पूरी होनेको सिरर गई, परइसके लिखनेका संकटप यों ही रह जाता जान पड़ा । पर, विचार इतना दढ ष्टो चुका था कि उसफो पूरा किया ही गया और जेल-जीवनकी इल अवधिके पूरा होनेसे एक ही दिन'पंहिले भावी रातको उसको पूरा करनेके वाद भूमिकाकी ये पंक्तियां.छिखी गई है' ।




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