शांति पर्व खंड - 2 | Shanti Parv Khand - 2

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Shanti Parv Khand - 2  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एकसी वत्तीस का भ्रध्याय “০ घींढिये । यदि सन्थि करने में सफलता न॑ हो तो पराक्रम दिषो) शत्रं ॐ अपने गज्य की सीमा के बाहर कर देना चाहिये । यदि ऐसा करने समय आक्रान्त राजां को प्राय गेँवाने पढें तो बह प्राण गँवाना ही अच्छा है। यदि अपनी सेना के सैनिकों का अपने ऊपर अनुराग हो और शत्रु के साथ लद़ने कौ उत्तम उत्साह हो और सैनिक अपने श्रन्नदावा राजी की सचमुच भलोई फरना धादहते हो, तो धंढ राजी श्रखिल भूमरडंल को भी विजन कर सकता है। जो राजा युद्ध में माश जाता है, वह स्वर्ग में जाता है। यदि शत्रु सांमरथ्यवात्‌ हो, वो प्रचलित रथी ढेः अनुसार उससे हितैपी बने रह॑ने की शपथर ले; उप्तके प्रति कोमेलता- प्रदे्शित करे और विनेय श्रादि से शन्नराजा का अपने ऊपर विश्वास ' उत्पन्न करे, उसका विश्वासपात्र बन जाय। यदि अपने मंत्रियों आदि राजफर्सचारियों की विमकदरामी से राजा शत्रुराजा से लड़ने में असः, मर्थं हो श्रौर सन्धि होने की सम्भावना नांहो, तो राजा राजधानी दोव ' भग জাম श्रौरं समां दुका कर शश्र को शास्ति करदे । অনিল करना सम्भव न हो तो स्व्यं किसी दूरदेश को चला जाय शरीर. बहौ भ्यस्थ कर सेना एकत्र कर के पुनः अपने हाथ से निकले हुए राशय षो पाने फा प्रयत्न फरे । . एदःसौ बत्तीस का अध्याय হাজি জা में राजपिथों की पया यरुधिष्टिर ने पूछा-- हे पितामह ! जव ै लोक-समादत को राजा भरजारणं रूपं নিজ গীত পরল का पालन थ कर सके रं उसकी श्राजीविका क समस्त साधन छुटेरों के इंस्तगत हो जाये और आपत्तिकाल उपस्थित हो, तब्र दयनीय परिधार,अर्ग्नत पुन्न पौत्ादि का त्वाम न करने बाला ज्ाद्यथ अपना निर्वाद फिस प्रकार करे | 1?




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