अशोक नाटक | Ashok Natak

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Ashok Natak by सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दृश्य ] पहला अक ['& छोड़ दूंगा और तक्षशिला के विद्रोह का दमन कर मैं शीघ्र ही पाटलिपुत्र लौट आऊँगा | असंधिमित्रा : नही, महेन्द्र और सघमित्रा को पाटलिपुत्र छोड़- कर हम दोनों तक्षशिला चलेंगे । अशोक : यह भी हो सकता है । श्रसंधिमिना : (प्रसन्नता से) यह कार्यक्रम सर्वेथा ठीक है । अ्रशोक : (विचारते हुए) देखो, प्रियतमे, यह सुसीम एक प्रदेश का विद्रोह भी ज्ञान्त न कर सका। यदि भारतीय साम्राज्य इसके हाथ मे गया तो उसकी क्‍या दशा होगी इसका अनुमान किया जा सकता है । अंसंधिमित्रा : बिलकुल ! श्रहमोक : मेने श्रभी तुम्हे सस्कृत की एक उक्ति बतायी थी “वीर भोग्या वसुन्धरा' । मुझ मे कोई महत्त्वाकाक्षा नही है यह मैं नहीं कहता; महत्त्वाकाक्षा मानव की स्वाभाविक वृत्ति है । असंधिमित्रा : इसमे भी कोई सन्‍्देह है । अशोक : परन्तु इस महत्त्वाकाक्षा के श्रतिरिक्त भी जब में देश की ओर हृष्टिपात करता हैँ तव भी मुझे सुसीम का सम्रादू होना किसी भी प्रकार देश के लिए कल्याणकारी नही दीखता । असधिमित्रा : कदापि नही । श्र्लोक : पितृभ्य चन्द्रगुप्त की देन का पित्ताजी यदि विस्तार नही करपायेत्तोकम से कम उन्होने उसका सरक्षण तो किया। सुसीम से यह्‌ नही होने वाला है ।




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