अज्ञान के बंधन कांटे - उन्मुक्त जीवन जयें | Agyan Ke Bandhan Kante Unmukat Jivan Jiya

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Agyan Ke Bandhan Kante Unmukat Jivan Jiya by श्रीराम शर्मा आचार्य - Shreeram Sharma Acharya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

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जन्म:-

20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)

मृत्यु :-

2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत

अन्य नाम :-

श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी

आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |

गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत

पत्नी :- भगवती देवी शर्मा

श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अश्ान के० | [ १७ दूसरे अरूचि के परिणाम मिलते है तो संवेदनाशील व्यक्ति दुखी होता है। 'मसार यथार्थ की कठोर घरती है। यहां सभी तरह की परिस्थितियों के झोके आते रहते है । पद-पद पर प्राप्त परिस्विति का स्वागत कर हठता के साथ आगे बढने दाने ही दु.ख इन्हों पर काबू पा सकते हैं । मानव जीवन दृहरी कार्य प्रणाली का सयोग स्वल है। मनुष्य लेता हैं और त्याग भी करता है। निरन्तर श्वास लेता है और प्रश्चास छोडता है। भीजना करता है किन्तु दूसरे रूप मे उसका त्याग मी करता है।इस तरह बनात्मक और ऋगात्मक दोनों क्रियाओं में ही मनुष्य जीवन की वास्त- ब्रकता है। दोनों मे से एक का अभाव मृत्यु है दोनो के सम्मिलित प्रयास से ही जीवन पुष्ट बचता है । विजली की ऋण और घन दोनो घारायें चलती हैं तभी प्रयोजन सिद्ध होता है । अकेती एक धारा कुछ नहीं कर सकती । इसी तरह ससार में सुख भी है और दुख भी । न्याय है और अन्याय भी । प्रकाय है और अन्वेया भी । समार सुन्दर उपवन है तो कठोर कारागरार भी । जन्म के साथ मृत्य, और मृत्यु के साथ जन्म जुडा हुआ है | इस तरह विभिन्र घनात्मक और ऋणात्मक पक्ष मिलकर जीवन को पुष्ट करने का काम करते ई, केवल सात्र नुन की चाह करना और दुख दन्द्रो मे बचने की लालसा रखना एकाज्डी है । प्रकृति का नियम तो बदलता नहीं इससे उल्टे मनुष्य में भीरता,मानसिक दुर्बलता को पोपण मिलताहै मनुष्य को निराशामय चिन्ता का सामना करता पडता । जो कुछ भी जीवन मे प्राप्त हो जैसी भी परिस्थिति आये उसे जीवन का वरदान मान कर सन्तुष्ट और प्रसन्‍त रहने मे कजूपरी न की जाय । वस्तुत. सुख दू ख, अनुकूल प्रतिकूल, धनात्मक-ऋषणात्मक परिस्थितियों में जीवन वलिए और पुष्ट होता है । इनमे से निकव कर ही मनुष्य तिरामय, अनावृत्त और निर्मल वत॒ सकता है। वँसे इनसे बचने का कोई रास्ता भी नही है । फिर क्यो नहीं हर परिस्थिति से सहज भाव मे स्थिर रहा जाय? जव पमार को चलाने वाले नियम परिवर्ततशील ऋणात्मक और बनात्मक है तो फिर अपनी एक-सप्ली दुनियाँ वसाने की कल्पना




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