सागर सेतु | Sagar Setu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৪ आ उपस्थित हुए। राजा ने उन्हें बारी-बारी देखना आरम्भ किया । ब्रह्मतेज उनके मुखसण्डल पर देदीप्यमान हो रहा था। राजा के मन प्र एक अदु मुत प्रभाव पड़ रहाथा। अन्त में एक ऋषि- कुमार को देखकर राजा ने साश्चय उस पर गुली रख दी । वहु ` अवाक्‌ रहं गयः । यह्‌ केसा जादू ! “यही ब्रह्मचारी था, गुरु- देव 1; वह्‌ खहसा चिल्ला उठा । गुर्‌ हसे--“तुम कहते हो इसे तुमने मारा, परन्तु यह तो यहाँ खड़ा है ? राजन , तुम्हें वास्तव से अम हुआ हे |” उन तपोनिष्ठ ब्रह्मर्थि की साधना, तपस्या के महत्व को कुछ ' समभते हुए भी राजा के मन से संशय दूर न हुआ | उसने उसी स्‍थान को देखने की इच्छ प्रकट की, जहाँ भाड़ी के पीछे वह ऋषि-कुमार मस्त पड़ा था। गुरु की आज्ञा से राजा कुछ आश्रम- वासियों के साथ वहां गया । देखा तो वहाँ न तो कोई खग था, न त्रह्मचारी। न शक्षृत्युका कोई चिह्न ही था। राजा किंकतेव्य- विमूढ़ सा गुरु के चरणों में आ पड़ा । “यह क्या रहस्य है, गुरु- देव | मुझे कुछ नहीं सूक रहा। मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है । कृपा कर सेरा अज्ञान दर कीजिये !”? तब गम्भीर वाणी में गुरु बोले--'राजन्‌ |! हम सब लोग इस आश्रम में स्देव सत्य का पालन करते ह। सत्य वह जो तीनों জ্ঞান में रहे, जिसका अभाव न हो। स्वप्न में देखे गये पदार्थों को हम ज्ञाम्रतस आने पर डनका चिन्तन भूलकर भी नहीं करते; क्योंकि वह तो असत्य है। जो सत्य है, वह ब्रह्म है ओर वहाँ मृत्यु स्पश नहीं कर सकती । जो ब्रह्म में रमण करता. है, उसे प्रिय- अग्रिय का स्पशे नहीं होता | इसके साथ ही हम सब स्वधम का ঘাজল भी करते हैं। यहाँ मृत्यु आ जाये तो हमारा तप, साधना ज्ञान सब नष्फल हो जाये |); “महाराज, यह केसे १ राजा ने सरत्ञ भाव से प्रश्न किया-




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