आवश्यक सूत्र | Avashyak Sutra

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Avashyak Sutra  by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाधान (३)--आवक के ब्वतों भ्रौर भ्रतिचारों को एक साथ कहना श्रावकसूत्र है। लेकिन यह विषय बड़ा विचारणीय है । (१) साधु महाव्रतों में श्रावक के श्रण्व्रतों का समवे हो जाता है, इसलिए साधु को श्रावको के व्रत कहने की श्रावश्यकता नहीं है ! (২) क्रावक को तो साधु होने का मनोरथ अवश्य करना चाहिए, परतः श्रमणसूत्र कहने की प्रावश्यकता है, परन्तु यदि कं किं साधु भी श्रावकं होने की भावना करे भ्रौर श्रावक सूत्र को प्रतिक्रमण में कहे तो यह कथन सर्वथा श्रयोग्य ही होगा । शंका (४)- श्रावक श्रमणसुत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे या करते हैं, इसका कोई प्रमाण है क्या? समाधान (४) - द्ादश वाषिक महादुष्काल से धर्मस्खलित जैनों के पुनरुद्धारक श्रावकवरिष्ठ श्री लोका- शाह गुजरात देश के भ्रहमदाबाद शहर मे हुए। उस देश में श्रर्थात्‌ गुजरात, भालावाड, काठियावाड़, कच्छ भ्रादि देशो मे छह कोटि एवं श्राठ कोटि वाले सभी श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रणण करते थे एव करते है । सनातन जँन साधूमार्गी समाज के पुनरुद्धारक परमपूज्य श्री लवजी ऋषिजी महाराज के तृतीय पाट पर विराजित हए परम पूज्य श्वी कहानजीऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावकं श्रमणसूत्र बोलते है। बाईस सम्प्रदाय के मूलाचार्य परम पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक एवं मेवाड़ देश- धमंप्रवत्तेक पज्य श्री एकलिगदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं । उपय क्त शंका-समाधान से सिद्ध होता है कि श्रावक को श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करना चाहिए । श्रमणसूत्र के पाठोंके विना श्रावक की क्रिया पूरी तरह शुद्ध नहीं हौ सकती दहै । क्योकि श्रावको को श्रवश्य जानने योग्य विषय श्रौर श्राचरण करने योग्य विषय श्रावकसूत्र में हँ । प्राचीनकाल केः श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते ये, वतंमानमेंभी कुछ श्रावक श्रमणसूत्र सहिते प्रतिक्रमण करते है श्रौर जो श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण नही करते हैं, उन्हे श्रव करना चाहिए । प्रस्तुत संस्करण श्रावश्यकसूत्र का प्रस्तुत संस्करण झागम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है । इस समिति की श्रायोजना हमारे स्वर्गीय गुरुदेव पूज्य य्‌ वाचाय श्री मधुकर' मुनिजी महाराज दवारा की गर्ह थी । गुरुदेव का यह विचारथा कि मूलभ्रागमों का प्रकाशन एेसी पद्धति से किया जाए जिससे सवंसाधारण श्रागमप्रेमी जनों को भी उनका स्वाध्याय कर सकना सरल हो । यह कोई सामान्य संकल्प नहीं था । एक भगीरथ अनुष्ठान था, मगर महान्‌ संकल्प के धनी गुरुदेव ने इसे कायं रूप में परिणत किया श्रौर भ्रषपके निदं शन में श्रनेकं श्चागामो का प्रकाशन हो भी गया 1 किन्तु दुख का विषय यहं कि गुरुदेव बीच ही स्वगे सिधार गण्‌ । तत्पश्चात्‌ भी श्रनेक मुनिवरो श्रौर उदार सद्‌ गृहस्थो के महत्त्वपुणं सहयोग से गुख्देव द्वारा निदिष्ट प्रकाशन-कायं भरग्रसर हो रहा है । श्रव यह प्रकाशनकायं गुरुदेव य्‌ वाचायंश्री के प्रति एक प्रकार ते श्रद्धाञ्जलि-स्वरूप ही सममःना चाहिए । श्रावश्यकसूत्र के सम्पादन मे हमारी गुरुणीजी म. भ्रध्यात्मयोगिनी, भ्रगस्तवात्सल्यमूति, चूमधुरभाषिणी, परमविदुषी पूज्य श्री उमरावकु वरजी म. सा. ने मेरा पथ-प्रदर्शन किया है । तपोमूति श्री उम्मेदकुवर म. तथा श्रन्य साध्वी-मण्डल का सहयोग प्राप्त हुआ है । उपाध्याय कविवयं श्री श्रमरमुनिजी म. भ्रादि द्वारा सम्पादित संस्करणों का भी इसमें यथास्थान उपयोग किया गया है । इन सभी के सहयोग के लिए मैं अतीव शभाभारी हूं । [ १६ ]




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